गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

2010
आप सभी
को
नए वर्ष की
मंगलमय
हार्दिक शुभकामनाएं।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

तुम कब आओगे

धूल धूसरित शाम
चित्कार उठी जिन्दगी
लहु लुहान हुई इंसानियत
शर्मसार हुई शर्म
गोलियों की बौछार
लालम लाल हुई जमी
रोते बिलखते बुढे,बच्चे,जवान
मन्दिर,मस्जिद,गुरूद्वारे,गिरजाघर
नस्ताबुत हुए,बन गया श्मशान
बन्ध्या हुई जमी,जन्नत की चाह में
दोखज भी न मिला
आर्तनाद से फटा आसमां
पुकार उठे
तुम कब आओगे ।








धूल धूसरित शाम
चित्कार उठी जिन्दगी
लहु लुहान हुई इंसानियत
शर्मसार हुई शर्म
गोलियों की बौछार
लालम लाल हुई जमी
रोते बिलखते बुढे,बच्चे,जवान
मन्दिर,मस्जिद,गुरूद्वारे,गिरजाघर
नस्ताबुत हुए,बन गया श्मशान
बन्ध्या हुई जमी,जन्नत की चाह में
दोखज भी न मिला
आर्तनाद से फटा आसमां
पुकार उठे
कब आओगे तुम।








सोमवार, 21 दिसंबर 2009

हिमालय

ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
ओ, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
ओ, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।

रविवार, 13 दिसंबर 2009

दर्द

दर्द
जीवन ही दर्द,दर्द ही खुशबू
जीवन ही विकास,विकास ही मंजिल
हर तरफ ही कोलाहल, दर्द ही अपना
दर्द ही राह, दर्द ही पथिक
दर्द ही शाम, दर्द ही सबेरा
दर्द ही राहत, राहत ही सुकून
दर्द ही तड़प, दर्द ही मिलन
आनन्द ही दर्द, दर्द ही सत्य
सत्य ही सुन्दर, सुन्दर ही शिव।

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

अनकहे प्रश्न

अन्तस्तल की गहराई में
डुबती-उतराती मैं
बन सूरज की नन्हीं किरण
स्पर्श कर, स्पन्दित किया
स्वस्पूर्तित हुई मैं
तुमने कहा मंथन करों
भवसागर के गरल,विषैले नागों
विष दन्त विहिन दानवों का
अमृत सा जीवन,आत्मसात कर
दो शान्ति,प्रेम,भाई-चारा
जीओं और जीने दो
गुंजयमान करो, जग को
शुक्रिया, मेरे सखा,साथी,हमसफर
हमराही,न दूंगी नाम कोई
बदलते जाने-अनजाने रिश्ते को
बन राही
क्षितिज के पार
अनन्त की खोज में
चलने को हूं तैयार मैं
बोलो, दोगे साथ मेरा।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

वंदना


हे माँ शारदे,
वीणापाणी
कमलनयना,
शुभ्रवसना
हंसवाहिनी,
ज्ञान वरदायिनी
तप्त धरा पर
ज्ञानामृत बरसा दे माँ
पल्लवित हो,
नव नित कोपल

हे माँ शारदे.........
झंकृत कर वीणा के तार,
सुना दे ऐसी स्वर लहरी
निर्मम, नृशंस हृदय में,
प्रेमावेग का हो संचार
माँ ऐसा वर दे,
नव नित, नव पल,
शब्दों का हो निर्माण
भाषायी भेद-भाव मिटे,
समरसता का हो संचार

हे माँ शारदे.........
तेजपुंज से तेरे,
धर्मान्धता की धूल हटे
नव जीवन में,
नव मानवता का अंकुर फूटे
“वसुधैव कुटुम्बकम्” से गूंज उठे धरा,
निर्भय हो हर क्षण
ऐसे सधूं साधना में तेरी,
बीते हर पल, हर क्षण
हे माँ शारदे.........

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

मैं अकेला

चौराहे पर खडा़ मैं अकेला
आगे – पीछे, दाएं-बाएं
जन कोलाहल, सड़कों पर सरकती गाडि़याँ
इंसान को ढोता इंसान
फिर भी मैं अकेला।
मर्माहत इंसान, अवमूल्यों की धूम
पश्चिमी चकाचौंध में उलझती जिन्दगी
आदर्शों की लाश पर खडा़ इंसान
स्पर्धा की सरपट दौड़,कुर्सी की होड़ा-होडी़
दानव संस्कृति को पछाड़ता इंसान
फिर भी मैं अकेला।।
प्राकृतिक झंझावतों को झेलता
जिजीविषा की खोज में तड़पता इंसान
जनसंख्या के विस्फोट में ढूढ़ते
भूखे-नंगे,लाचार,बेकार,दिशाहीन लोगों की भीड़
विध्वंसक बारूदों की ढेर में तलाशता शान्ति
शून्य को निहारता, उदास खडा़ मैं अकेला।।

बुधवार, 11 नवंबर 2009

चेहरा

--- साधना राय
तेरा चेहरा
अमावस की रात में छिटकती चांदनी
गिरजे-गुंबदों से उठती दुआओं जैसा,
मन को बरबस खींच लेता है।

कशिश आंखों की,
चातक की प्यास जैसी,
हर पल याद दिलाती तेरी।

तेरी हंसी
बिजली-सी कौंध जाती है,
कंपित कर देती
हिय के तारों को।

ओ मेरे मीत !
मत रूठो,
चार दिन रैन बसेरा है,
न जाने फिर हम कहां,
बस याद रह जाएगी।

हंसी तेरी नगीने जैसी,
जड़ ले इन लबों पे,
लुत्फ उठा इन हसीन पलों का,
मृग शावक की किलोल में,
बालपन की निश्छलता में।

दुआ हे मेरी
हंसी से सुहासित कर
ज़िदगी अपनी !!!!
*** ***

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

काश


उन्नत भाल पर लहराते श्‍वेत केश

बगुलों की अनगिनत पंक्तियां अठखेलियां कर रही हो जैसे।

श्‍वेत दंत पंक्तियां झांक रही हैं होठों की ओट से, व्याकुल है कुछ कहने को

मगर मौन हो जाते हैं होठ, बिखरा देते हैं फूलों सी हंसी।

भृकुटी तन जाती है दुर्वासा की तरह, संयमित होते चाणक्य की तरह।

पिता तुल्य स्नेह लुटाते, कभी बन सखा आस बढ़ाते

शिशु सी निश्छल हंसी से लुटते हिय के तार ।

बज उठते हैं सुरों की राग-रागिनियां सुरमणियों के स्पर्श से

मृग शावक की किल्लौरियों सी नन्हीं उमंगे उमड़नें लगती है।

जीवन संध्या के तटबंधों से टकराकर बिखर जाती है

पाने को मचल उठता दिल बालपन के खिलौने की तरह।

काश..............................ऐसा न होता।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

कली

--- साधना राय
डार पे इठलाती,
झूमती
मदमस्त कली
आनंद,
जीवन
भंवरे की मस्ती
आहत,
मर्माहत
जीजिविषा
उजड़ी ज़िन्दगी
डार से गिरी
अधखिली
कालावित।।

***

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

आज से मैं भी ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश कर रही हूं।
मुझे आपका साथ और प्रोत्साहन चाहिए।