बुधवार, 29 दिसंबर 2010

क्षणिका

उसने कहा साथ निभाएंगे,न जाने क्यूं चल दिए,

हम तकते रहे,सोचते रहे, जाने क्यूं चल दिए यूं

क्यूं लाड़ लड़ाया उन पलों को,जब यूं ही चले जाना था

आंखों से बहते आंसू ने पूछा थर्रथराते ओठों से

क्या हुई ख़ता तुझसे,जो चल दिए यूं मुंह मोड़ के

सांसों ने पूछा क्यूं रूक गई धड़कन,पूर्वी पवन के झोकें से

क्यूं बेखबर,बेजान किया,इस बेमरउवत पवन के झोकें ने।।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

लम्हें


यादों की गलियारों से कुछ लम्हें

अकसर याद आते हैं

छोड़ जाते हैं ओठों पर हल्की सी मुस्कान

और गुदगुदा जाते हैं उन पलों को।

और कुछ दे जाते हैं आंखों में नमी

छेड़ जाते हैं तार दर्द के वीणा की

झंकृत कर देते हृदय के लहरों को

रस लहरी निकल पड़ती है आंखों के कोरों से।

और कुछ लम्हें यूं ही अकसर याद आते हैं

कोहरें से लिपटी चादर हो जैसी,कुछ अनकही सी

कुछ अनसुनी सी,कुछ अनदिखी सी।

बुधवार, 8 सितंबर 2010

चाहत

काफी अंतराल के बाद आज फिर आपकी ख़िदमत में उपस्थित हुई हूं चंद पंक्तियों के साथ इस उम्मीद से कि मुझे आपसे पहले जैसा ही प्यार एवं आशिर्वाद मिलेगा। स्वयं की बिमारी से जूझती हुई पर आप से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती।

चाहत


जीने की चाह में इतने मशरूफ़ हुए कि

जी रहे हैं हम।


सोचा तो लगा कि कहां जी रहे हैं हम

दिन गिन रहे हैं हम।


उम्मीद है कि दामन छोड़ती ही नहीं कि

जी रहे हैं हम।


जीने की चाह ने आज इस मुकाम पे ला छोड़ा कि

एक तरफ जीने की उम्मीद और एक तरफ

नाउम्मीदी ने रखा है दामन थाम, इस कशमोकश में हैं कि

जाए तो कहां जाए हम।


इस तड़प ने फिर जला दी शमां चाहत जीने की

और फिर से जी रहे हैं हम।।

रविवार, 15 अगस्त 2010




आप सभी को


स्वाधीनता दिवस

के शुभ अवसर पर

हार्दिक बधाई।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सैलाब



सैलाब बहा ले गया अनगिनत ज़िन्दगियां

रह गई तबाहियों का भयावह मंजर

है कौन जिम्मेदार इन तबाहियों का।


कई सवाल कौंध उठते रह रहकर ज़हन में

सोचने को मजबूर कर देते हैं

कौन है ज़िम्मेदार इसका।


इन हरी-भरी वादियों में घूमती थी परियां

अठखेलियां करती थी फूलों डालियां।


गाती थी हवाओं के संग राग-रागगिनी

छेड़ देती मधुर संगीत की धून लहरे

अलहड़ नदी की उन्मत्त ताल पर।


स्वर्गिक चित्रकारी खुदरत की

क्यूं बरपा गई कहर बन सैलाब का

दे गई न भूल पाने वाले जख्म।


हम यूं तकते रहे, कर न सके सामना

विवश,लाचार मूक दर्शक बन बस देखते रहे

तांडव मृत्यु के रौद्र,क्रूर,भयावह रूप का।


हां,हम है जिम्मेदार इस रूद्र तांडव का

विकास की अंधी दौड़ में छूट गई

हमारी जिम्मेदारियां इसके संरक्षण की।


जलती रह गई धरती हम रह गए मस्ती में

अनदेखा कर गए,खुद की कब्र खोदने में हो गए

मशरूफ इतने कि जान ही न सके।


कब पैरों तले सरक गई ज़मी और

हम देखते रह गए तबाहियों का मंजर

अब भी वक्त रहते संभल जाए

वरना मिट जाएगा नामोनिशान।


इस धरा का, हाथ मलते रह जाएगे

बहा ले जाएगा सैलाब न जाने कितनी ज़िन्दगियां

छोड़ जाएगा अनगिनत कई सवाल अस्तित्व पर।

बुधवार, 4 अगस्त 2010

सुख



सुख क्या है

क्षणिक अनुभूति

आनंद

राहत

सफलता

पूर्णता

खूशी

शान्ति या फिर

पूर्णता का इनाम

या फिर

चाह की पूर्ति

आकांक्षा की तृप्ति

या फिर

महत्वकांक्षा पर विजय

इच्छाओं का शमन

या फिर

दुख की पहचान ही

सुख है।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

मुझको प्यार है तुमसे




ऐ ज़िन्दगी मुझको प्यार है तुमसे
पल पल बीतती ज़िन्दगी,
हर पल नित नूतन रूप दिखाती
खटे-मीठे अनुभव दे जाती
अपने - पराएं का बोध कराती।



रूकना ,चलना, गिरना
फिर उठ कर चलना सिखलाती
रात-दिन, फिर रात के बाद
दिन का आनंद दिलाती ।



जीवन पथ के टेढे़-मेढे,पथरीले,
कंटक भरी राहों से गुजर कर
मंजिल तक पहुंचना, सबक़ सिखलाती।



रहगुज़र में रहबर बन जाती है
बिछा देती फूलों को कदमों तले
फिर लगा लेती गले
ऐ ज़िन्दगी मुझको प्यार है तुमसे।



मौत से प्यार करना सिखलाती
तू कितनी ज़िन्दादिल है ज़िन्दगी
इश्क से खुदा को मिलाती है ज़िन्दगी
ऐ ज़िन्दगी, हां मुझको प्यार है तुमसे।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

चटकती धूप



सुबह की धूप आज कितनी खिली है
कई दिनों बाद
मानों सूरज की किरणें बुहार रही
धरती के हरीतिम आंचल को।

स्वच्छ,निर्मल,स्वछंद विचरण कर रही
ताल तलैया, नहर नदी, खेत खलिहान
पहाड़ पठार ,सागर समुन्दर,नभ और गगन
चहुंओर बांह फैलाएं चटकती धूप लहराएं अपने आंचल को।

पीत हरित रंगों में समा गई धरा
अपलक निहार रही मैं अनुपम,अलौकिक,अद्भुत प्रकृतिक सौन्दर्य को
चौंधिया गई आंखें,खिल गई अविस्मृत मुस्कान ओठों पर
खो गई आनन्द परमानन्द के संयोजन में और
चमक उठती हैं आंखें जैसे हरी घास को देखकर गाय की।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

साधना



समुन्द्रतल से निकली,सागर में समाई
पर्वतीय शीलाखण्डों को दुलराती
अलहड़ सी मदमाती वनखण्डों
को सींचती,सहलाती निकली।


गर्विणी सी तोड़ती मानवीय दर्प तटों को
बन मानिनी सी,सकुचाती प्रिया मिलन
की आस में अंजुमन की धार बन जाती।


कभी उन्मत हो चट्टानों,पथरीलें राहों से गुजरती
दिवानी सी बह निकली अन्जान राहों से
उछलती,उफनती दुधियाई शीतलता की बौछार करती।


गुनगुनाती,नर्तन करती,गुदगुदाती संवेदनाओं को
रेतों, मैदानों को संजीवनी बन प्राण फूंकती
धर्म को संस्कारित कर ठोस धरातल देती।


जीवन की निस्सारता को पूर्णता देती
मल, मलीनता,धर्मान्धता, करकटों को छांकती
नवस्पूर्त कर जीवन प्रदान करती बह निकली।

बोझिल कदमों से,उन्नीदी आंखों से निहारती
समाहित हुई सागर में,करती निरन्तर साधना साध्य की
सतत् प्रवहमान आनंद के परमानंद में।

शनिवार, 26 जून 2010

बारिश


बारिश की पहली बूंदों ने
पत्ता दर पत्ता धो डाला
धूल ,गर्द और मिट्टी
की चादर,बिछी थी
कितने दिनों, सालों, महिनों, वर्षों से
निखर उठे सुकोमल,चटकार रंगों वाले पत्तें।

बारिश की पहली बूंदों से स्पर्शित मिट्टी
सोधी खुशबू से मंहका खेत खलिहान
लाल मखमली कीड़ों ने स्वागत किया बूंदों का
निकल पड़े अगवानी में।

तप्त धरा की प्यास बूझी
खुशी के आंसू बन गए बादल
बरसे घुमड़-घुमड़कर
चमक उठी आंखें कृषक की
नव सृजन की आस में।

झूम उठी डाली-डाली,पत्ती-पत्ती
नर्तन करने लगी बूंदों संग
गुनगुनाने लगी सुमधुर संगीत
वर्षा ऋतु के आवन के।

गुरुवार, 17 जून 2010

ख़ामोश निगाहें












ख़ामोश निगाहें है ढूंढ रही
पहाड़ों,जंगलों और सड़कों में
आता नहीं जवाब कोई भी
सूनी राहों से।
ख़ामोश क्यूं हो गई जु़बान
इन विरानों में
चुप क्यूं हैं निगाहें
कहती क्यूं नहीं।

दिल के राज़ क्यूं नहीं खोलती
ओठों तक आते ही क्यूं रूक जाती
कह कर भी अनकही रह जाती हैं बातें
क्या कहें ,किससे कहें,कोई सुनता ही नहीं।
यही देख बस ख़ामोश हो जाती है निगाहें
इन कशमोकश में छलक जाती है आंखें
पी जाती है दर्द के प्याले
गुनने लगती है अफ़सानें।
ढूंढने लगती है ख़ामोश हो निगाहें
गुजरेंगे परवाने शायद इन्हीं राहों से।

गुरुवार, 3 जून 2010

प्रार्थना

प्रभू जी सुन लो अरज हमारी
तू ही रब्बा,तू ही मौला,तू ही पालनहार
प्रभू जी........................................।
छाया घनघोर अंधियारा,सुझे न राह कोई
तू ही बता, जाऊं मैं कहां प्रभू जी
प्रभू जी................................।
बन दीपक बरसा रहमत, ओ मेरे मौला
सुन ले पुकार मुझ गरीब की, ओ गरीब नवाज़।
तू ही ईसा,तू ही मूसा, तू ही पालनहार
प्रभू जी........................................।
तरस रही तेरे दरस को,अब तो आन मिलो प्रभू जी
तू ही श्याम, तू ही राम, तू ही पालनहार
प्रभू जी.........................................।
तेरे नूर में डूबा ऐ जग सारा, तेरे इश्क में रंगा ऐ तन मेरा
तू ही अल्ला, तू ही ख़ुदा, तू ही पालनहार
प्रभू जी..........................................।
लगन में झूमे तेरे , ऐ मन मस्त मेरा
आ तू भी झूम ले, ओ मेरे प्रभू जी।

बुधवार, 26 मई 2010

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी भी क्या चीज है
वक्त बेवक्त ला खडी़ करती है।
ऐसे चौराहे पर
जहां सब कुछ ऊलझ जाता है
रह जाती है कुछ यादें मीठी सी।
उन पलों को जीते-जीते।
कब बन जाती है यादें
पता ही नहीं चलता।
होश में आते ही
लगते हैं सोचने
कैसे बन गई ये यादें।
वो लड़ना-झगड़ा और बेबाकी बातें
उलझना फिर सुलझाना।
बन आलोचक टांग खींचना
फिर मार्गदर्शक बन
स्वप्नद्रष्टा बनाना।
अचानक यूं अलविदा कह
चले जाना, हो जाता है जानलेवा।
और रह जाती हैं यादें।
जिन्दगी भी क्या है
नित्य नूतन रूप है दिखलाती
हो जाते हैं विवश जीने को
उन लम्हों को, उन यादों को।

गुरुवार, 20 मई 2010

एक दिन का शागिर्द


वर्षों की हुई साध पूरी
मिला मुझे अनोखा शागिर्द।
कहा.. बना लो शागिर्द
मुझे उस्ताद।
सीखा दो चैटिंग टीप्स
बन जाऊं धुरन्धर
इस फील्ड का।
मैंने कहा एवोमत्स वत्स
इन्वाइट करो मित्र को।
शुरू करो फिंगर को
की बोर्ड पर नचाना।

प्रारंभ हुई चैटिंग
एक..दो..तीन बीते घण्टे कई ।
कहने लगा.. वाह उस्ताद

वाट ए इक्सपिरिअन्स
वन्डरफुल फीलिंग्स
वाट ए लवली थिंग्स।
मैंने कहा... हो गई दीक्षा
पूरी तुम्हारी,बन गए शहंशा।
पर वत्स और भी हैं फायदे इसके
मस्तिष्क को मिलती पुष्टी
मुख को मिलती विश्रांति
हृदय को मिलता शुकून
फिंगर को मिलता व्यायाम।
शागिर्द ने किया दण्डवत
नतमस्तक हो कहने लगा
बना दी लाइफ मेरी उस्ताद।

देना चाहता हूं दक्षिणा गुरूदेव
आज्ञा दे तो शुरू करूं
झट से उठ खड़े हुए उस्ताद
कह उठे न बन तू भष्मासूर
वरना हो जाऊंगा मैं चकमासूर

लो चला मैं अब
इन्ज्वाय कर लाइफ अपनी
बन गया तू एक दिन का शागिर्द ।


शुक्रवार, 14 मई 2010

मेरा चांद


बादल से क्यूं झांकता है मेरा चांद।
आज फिर दिखा बन चौदहवी का चांद।।

कुमुदनी है आतुर तेरी चांदनी से मुकुलित होने को।
चकोर है तकता रहता तेरे दर्शन का रस पाने को।।

वो निर्मोही क्यों छिपता रहता बादलों की ओट में।
देखता रहता क्यूं मधुर मिलन को चांदनी रात में।।

चांदनी से निकला आज मेरा चांद बर्षों बाद।
उतरा ज़मीन पे, समा गई स्निग्ध चांदनी मुझमें।।

सुलझ गई, अनसुलझी लटे, जो उलझी थी मुझमें।
मकरन्द छिप गया कमल दल से अभिसार में।।

हुई चाहत पूरी स्वीकारा जो तुने प्रणय निवेदन।
पूरनमासी रात, मिलन को आना ओ मेरे चांद।।


सोमवार, 10 मई 2010

मां

(मदरस डे के उपलक्ष्य में मैं आज उन सभी मांओं को और जो महिलाएं जिन्हें किन्हीं कारणवश मातृत्व का सुख प्राप्त न हो सका पर उनके अंदर उमड़ते सागरे से भी गहरे मातृत्व की भावना को शत-शत नमन करती हूं। आज के इस बदलते परिवेश में जहां रोजमर्रा की आपा-धापी में वक्त ही नहीं मिलता ख़ुद के लिए, ऐसे में समय निकाल पाना जहां हम अपनों से दूर हैं मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। चलिए आज शपथ लेते हैं कि कुछ समय के लिए ही सही अपनी जड़ों से जुड़े़,उसे सुखने नहीं दें, वरना हम भी कहीं भाव शून्य न हो जाए। शून्यता निर्जीवता का पर्याय है। ईश्वर की सबसे खुबसूरत धरोहर मानव जो मानवता के बिना अधूरी है,उसे परिपूर्ण बनाएं और आनंदपूर्वक रहें और आज कुकुरमूत्ते की तरह छा रहें विधवा आश्रम एवं बुजुर्ग आश्रम के तादात को रोक सकें और इस धरा की बगियां को प्यार एवं सद्भावना के खाद से सींचे।)

प्रकृति
ज़िस्म
और ज़ान
है मां तूं ।
क्या कहूं
तेरे बिन
कुछ भी
नहीं मैं।
तरस रही
मैं तेरे
आंचल
दूध
हाथों
को।
क्या भूल
हुई, मुझसे
क्यूं ख़फा है
मुझसे।
भूला दिया
तूझे
इन बदलते
चेहरों में।
होश ही न था
जा रही
किन अंधेरी
गुफाओं में
निकल पाना
नामूमकिन है मां।
आ जा, तू मां
पकड़ मेरी
उंगली
ले चल उस
दुनियां में।
जहां न हो
मजबूरियां
बेबसी
तन्हाईयां।
सिर्फ हो
खुशियां ही
खुशियां।
वर्षों से
जगी मैं
सो न सकी
कभी मैं।
सोना है
आज़ मुझे
गोद में तेरे
निर्भय और
निर्विकार हो।


सोमवार, 3 मई 2010

बरगद


सड़क किनारे खडा़ यह बरगद
देख रहा किसे, न जाने कब वह आएगा।
कई सदियां बीती,सरकारें बदली,ऋतुएं आई
पर तटस्थ दृष्टा बन, देखता रहा............. ।
निर्जन,उपेक्षित सा पडा़, हर पल सोचे ऐसा क्यूं है
औरतें नहीं बांधती रक्षा सूत्र, न मंगल सूत्र।
और न ही जलते धूप-दीप और न चढा़ नैवेद्य
क्या मैं शापित हूं,जात बहिष्कृत या फिर बंन्ध्या
पक्षियों का बसेरा तो है
पानी भी नहीं देता कोई।
फिर भी खडा़ हूं झंझावतों को झेलता
शायद यही है नियति मेरी।
जीना बस, जीते रहना,
सोचना मत, कल क्या होगा।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

तू कहे तो

आसमां के चादर में जड़े सितारों सी
बसी तेरी सांसे, मेरी सांसों में ।
तू कहे तो ला दूं
झिलमिलाती चादर को
तेरे लिए।
झरनों की कल-कल निनाद
करती जल-तरंगों को
ला दूं तेरे लिए।
तू कहे तो ला दूं
ऊषा की रश्मि किरणों को
सजा दूं तेरे चेहरे को।
तू कहे तो ला दूं
उष्णता से शीतलता को
छू जाए तेरे बदन को।
ला दूं तेरे लिए
फूलों की रंगत
संवार दूं तेरे यौवन को।
तू कहे तो ला दूं
गुलमोहर के रक्ताभ पुष्पों को
लालिम कर दे तेरे होठों को।
तू कहे तो ला दूं
धरती के धानी आंचल को
ढक दे तेरे दामन को।।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

क्या कहूं

कलकत्ता के

मछुआ बाजार

का

चौराहा पार

करते हुए

गुजरा कसाई

हांकते झुंड

भेड़ और बकरे

का

विद्रोही निकला

एक बकरा

करीब आ मेरे

खींचने लगा

बैग मेरा

मुड़के देखा

कृशकाय

मासूम सा

अश्रुपूरित निगाहें

उसकी

रूला गई मुझे

मानों पूछ रही हो

मैंने किया

क्या गुनाह

भूख न मिटी मेरी

मिटाने चला भूख

तुम्हारी

क्या शेष उद्देश्य

यही मेरे जीवन का

अंतरात्मा कांप उठी

गूंज उठा

एक ही स्वर

क्या शेष उद्देश्य

यही मेरे जीवन का

किया क्यों नहीं

संरक्षण हमारा

क्यूं छोड़ दिया

यूं भटकने

जीने और मरने को

किंकर्तव्यविमूढ़ सी

देखती रही, सोचती रही

सच ही तो है

संरक्षण का नारा लगाते

हम क्या वाकई

संरक्षण दे रहे निर्बल,

कमजोर,

अपाहिज

को या फिर

स्वांग रच रहें

खेल खेल रहे

ग्रास बना रहे

इन मासूमों को

बन सर्वशक्तिमान

रक्षा कर न सके

इन मासूमों की।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

इज़हार


हां प्यार है उनसे
जैसे
चांद को चादनी से
फूलों को खुशबू से
सागर को लहरों से
आसमां को तारों से
तितली को रंगों से
मीन को पानी से
सीप को मोती से
सावन को बादल से
हां प्यार है उनसे
ऐ हवा
ले जा
संदेशा मेरे प्यार का
ले आ
संदेशा उनके प्यार का
कह दे मैं हूं मीरा
मेरे श्याम की
राधा के
गिरधारी की।।




सोमवार, 19 अप्रैल 2010

गीत



ऐ दिल बता तू क्यूं धड़के इतना
क्या प्यार हुआ है मुझको
ऐ दिल बता तू क्यूं बेकरार इतना
क्या प्यार हुआ है...........
ऐ कैसी बैचेनी, ऐ कैसी बेकरारी
ऐ दिल बता तू
क्या प्यार हुआ है उनसे
ऐ दिल बता तू
क्या प्यार हुआ है.........
देखने को तरसू , सुनने को तरसू
क्या प्यार हुआ है उनसे
ऐ दिल बता तू
क्या प्यार हुआ है मुझको।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

तुम मिले


ज़िन्दगी की राह
में चलते-चलते
यूं एक दिन
अचानक मुलाकात हुई।
ऐसा लगा
जानते हैं, वर्षों से
कुम्भ में बिछड़े
साथी हो जैसे।
बसन्त के फूलों
की तरफ महकाएं
जीवन मेरा।
सूरत इतनी प्यारी
बसा लूं आंखों
चुरा न ले कोई।
खनकती है आवाज़ ऐसे
सुनती रहूं हर पल
मासूम दिल है इतना
प्यार करती रहूं हर क्षण।
दुआं कर इतना मौला
साथ न छूटे कभी
बता ऐ साथी
दोगे साथ हमारा।



गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

क्या ज़िंदा हूं मैं

क्या ज़िंदा हूं मैं
पता ही नहीं
चारों तरफ सन्नाटा
ही सन्नाटा
गुजरा कोई इधर से
खबर ही नहीं
क्या ज़िंदा हूं मैं
नहीं आती आवाज़े
चीखने की
सिसकने की
मुस्कराने की
कराहने की
बुदबुदाने की
चीरती हुई सन्नाटे को
कौन है जिम्मेदार
इस हालात के
कभी मैं भी था
हिस्सा इस बस्ती का
ज़िन्दा था
सोचता था
रोता था
हंसता था
अब तो कुछ महसूस
ही नहीं होता
कि ज़िंदा हूं मैं।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

प्रेम


प्रेम,प्यार,इश्क,मोहब्बत
सब एक हैं या जु़दा।
अल्ला,ईश्वर,ख़ुदा,परवरदीगार
नूर में हैं समाएं सब बंदे तेरे।
प्रेम क्या है आकर्षण,
दीवानगी,ईबादत,दिल्लगी।
या फिर
ज़ुनून,पागलपन,मदहोशी।
या फिर
भूख,हृदय की रागिनी
सांसों का नर्तन,
रूहों का मिलन
ज़िस्मों का मिलन।
क्यूं हैं दुनियां दुश्मन इसकी
क्यूं बिछाए रोड़े जात-पात के
क्यूं बिछाए कांटे गरीबी-अमीरी के।

क्यूं बने दुश्मन अपने ही प्यार के
क्यूं देते धोखा अपने ही प्यार को
क्यूं करते ज़लील अपने ही प्यार को
क्यूं लेते ज़ान अपने ही प्यार की।
कसमें खाते ताउम्र साथ निभाने की
बन जाते हत्यारे, अपने ही प्यार के।
कहां गई वो मिट्ठास,बन गए पशु
जिस सूरत को बसाया था, आंखों में
तेजाब से बदरंग किया उस को।
कैसा है यह प्यार,आज-कल समझ नहीं आता
जिसे चाहा,जिसे पूजा,उसे ही बेआबरू,बेघर किया।


बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नारी

नारी हूं मैं अबला नहीं
जो तुम कहते देवी
पूजते उसके चरणों को
शक्ति में है तुमसे भारी
जननी है तुम्हारी
क्यूं जलते शक्ति से उसके
तूमपे है वो भारी
सोच, घबराते
सौ बहाने निकालते
प्रताड़ना के
नारी को नारी से लडा़ते
देख तमाशा इतराते
कहते तू अबला है
तांडव करते पुरूषत्व का
सुन ऐ पुरूष अहंकार
में मत हो चूर
नारी है तुझ पे भारी
न जगा रणचंडी को
नस्तनाबूद कर देगी
तेरे अस्तित्व को
वंदन कर मां है तेरी
आमंत्रित कर श्री को
मंहकाएगी
तेरे जीवन
बगिया को
पूरक है तेरी
सृजन कर
खुशहाल समाज का
नई कोपले प्रस्फुटित हो
पल्लवित,पुष्पित हो
महके घर-आंगन।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

तलाश


खुद की तलाश में

क्यूं भटक रहे हैं।

मैं नाम हूं

मैं ज़िस्म हूं

मैं जान हूं

मैं रूह हूं

हम किस गली

से गुजर रहे हैं।

अपना कोई

ठिकाना नहीं।

अपना कोई

फसाना नहीं।

अपनी कोई

मंजिल नहीं।

भटक रहें हैं

मायावी जंगल में।

सब है पर

कुछ भी नहीं।

फिर भी तलाश है

फिर भी प्यास है ।

क्यूं भटक रहे हैं हम

खुद की तलाश में ।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

बोलो ना


चांद से मुखड़े पर
उदासी क्यूं छाई
बोलो ना
बसन्त में पतझड़ सी
उदासी क्यूं है।
फाग भी रीता निकला
बसन्त का करो स्वागत
बांह फैला कर
आगोश में भर लो
न जाने दो कहीं
रोक लो।
ग्रीष्म की तपिस
भी न झूलसा सकी
प्यार की कपोले
फिर फुटेगी सावन
के महिने में।
रिम-झिम बारिश
कर देगी सराबोर
सूने कोने को।
फिर लहलहा उठेगा
दिल का सूनापन
फिर खिलेंगे
अरमां के फूल।
शरद के नीले आसमां तले
सजेगी अरमानों की बारात
खुशी के नगमें बज उठेंगे
पिया मिलन की आंस में।
शिशिर की ठिठुरन में
एक हो जाएंगे
होगा
इंतजार
नए बंसन्त का
बोलो ना
क्यूं हो उदास।

सोमवार, 29 मार्च 2010

गीत



मेरी दुनिया में आकर, मत जाओ।
क्या ख़ता हुई मुझसे मत जाओ।।

वो भी क्या दिन थे,जब हम मिले थे।
क़समें खाई हमने, न होंगे ज़ुदा कभी।।

डर लगता है कहीं, खो न दूं तुम्हें।
मेरी दुनिया में आकर, मत जाओ।।

ऐसा भी कभी होता, अपनों से रूठता है भला कोई।
जीवन के धूप-छाह में अक्सर ऐसे कई मोड़ आते हैं।।

इस जंग को भी जीत लेंगे हम।
हम तुम मिल रचेगे इतिहास नया।।

मेरी दुनिया में आकर, मत जाओ....।


शुक्रवार, 26 मार्च 2010

जागती आंखे

जागती आंखे
हर पल निहारे
सोचे कौन है
तारणहार
सुलझे-अनसुलझे
मसले
रोटी-कपडा़-मकान
या
माओवाद,आतंकवाद,
जातिवाद, पार्टीवाद
प्रादेशिकता,आंचलिकता
भाषायी,धार्मिक मसले
या
मंहगाई,बेरोजगारी
भूखमरी की मार
नारी व्यथा
भ्रूण हत्या
दहेज
शिक्षा
या
प्राकृतिक झंझावतों
को झेलता
इंसान
कौन
है
तारणहार

नेता,अभिनेता
पत्रकार,सामाजिक
कार्यकर्ता
नौकरशाह
योगीराज,महाराज
और
आधुनिक बाबा
या
खुद हम।



शुक्रवार, 19 मार्च 2010

चलते चलते

लक्ष्मण झूले पर
चलते चलते
लोगों और
मोटर साइकिलों
की आवाजाही
में
सलाम करते हुए
मुस्कुराकर
यूं चुप चाप
चले जाना
बन्दरों की
धमाचौकडी़
को निहारती
भागीरथी की
निर्मल
पावन
जीवनदायी जलधारा
में लुत्फ उठाते
युगल जोडे़
आज भी
दृश्य चलचित्र
की भांति
ज़हन में
कौंध उठते हैं।


गुरुवार, 11 मार्च 2010

वाह क्या चीज है

सिलवर,ब्लैक
बराऊन,चेरी
स्टाइलिस,स्लाइडिंग
स्लिम,सेक्सी
वॉव, क्या वॉडी है
सेमसंग,एलजी
मोटोरोला
फ्लाई,स्पाईस

जवां दिलों की धड़कन
नेटिंग,चेटिंग,सरफिंग
और कॉन्फ्रेनसिंग
कर लो दुनियां मुट्ठी में
वॉव, वाह क्या चीज है
मोबाइल।

रविवार, 7 मार्च 2010

आरक्षण

काफी दिनों के बाद आज जब मैं लिखने बैठी तो बहुत सारी बाते ज़हन में उठ रही हैं,समझ में नहीं आ रहा है कि शुरूआत कहां से करूं। मनोज सर हमेशा मुझसे कहते हैं कि कविता के अलावा और कुछ लिखो,चलिए फिर मैं आज से ही इसका श्रीगणेश करती हूं। आरक्षण शब्द काफी जाना पहचाना है। बचपन से ही सुनती आ रही हूं।हमारे जीवन में जैसे रच बस सा गया है। फेबिकोल के मजबूत जोड़ जैसा है,छुडा़ए छुटता ही नहीं।
संविधान में इसे सुशोभित किया गया है, तब से आज तक काफी फल-फूल रहा है, क्यों न हो हमारे कर्णधार,जो सत्ता को सुशोभित करने के साथ-साथ सामाजिक उत्थान में सदैव तत्पर रहते हैं,समाज का कल्याण ही जिनका एक मात्र उद्देश्य है। हमारे प्रिय नेताओं का तो सबसे मूल्यवान मुद्दा है आरक्षण। इसकी वज़ह से तो कई सरकारे आई और चली गई और तोहफे में आत्मदाह,आगजनी,खू़न-खराबा न जाने कितने मूल्यवान तोहफे दिए होंगे जो भुलाएं नहीं भुलाएं जाते,क्या करें,ये हम सबसे प्यार जो इतना करते हैं। कल 8 मार्च है महिला दिवस के नाम। कल महिला आरक्षण बिल पेश किया जाएगा। इसके नाम से ही सियासतदारों में होड़ मच गई है,महिलाओं के हित एवं कल्याण को ध्यान में रखते हुए महिला बिल में 50 प्रतिशत आरक्षण करने के लिए कटिबद्ध है और राजनीति भी गरमा गई है। क्या करें बिचारे काफी सालों से सुकार्य में लगे हैं,लेकिन सफलता ही नहीं मिली। देखते हैं कल क्या होता है,उम्मीद ज्यादा है क्योंकि सत्ता की सिरमौर्य महिलाओं के हाथ में ही है।
कुछ सवाल हैं जो मेरे ज़हन में कुलबुला रहें हैं क्या आज महिला आरक्षण की आवश्यकता है,जहां एक ओर हम कहते हैं कि स्त्री-पुरूष बराबर है,दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों एक दूसरे के साथ कदम मिलाकर चल रहें है। महिला आरक्षण के नाम पर उसे पीछे ढकेलने जैसा नहीं होगा। महिलाएं अपना आत्म सम्मान तो पा चुकी हैं और कुछ पाने की राह पर सतत् अग्रसर हैं। महिला आरक्षण के नाम पर नौटकी नहीं तो और क्या। आरक्षण के नाम पर कहीं पीछे ढकेलने की साज़िश तो नहीं, नारी सशक्तिकरण के नाम पर छलावा तो नहीं। क्या आज इस आरक्षण की आवश्यकता है। क्या आरक्षण मिल जाने से मुद्दा खत्म हो जाएगा। डर है कि यह राजनीतिज्ञों की घटिया खेल का हिस्सा न बन कर रह जाए। उम्मीद पर तो दुनिया कायम है, देखते हैं क्या होता है।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

जीने दो

मेरा छोटा प्रयास यदि बाघ बचावो अभियान में योगदान दे सकता है तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी,क्योंकि यह हम सभी का कर्त्तब्य भी है कि इस धरा के सौन्दर्य को कभी न मिटाएं।

हम तुम
एक ही माल्लिक के बंदे
फिर क्यू हैं ये दुरियां
हमने तो नहीं बिगा़डा़
संतुलन इस धरा का
फिर क्यू नहीं
जीने देते हमें।
तुम हो विवेकशील पशु
हम हैं नृशंस पशु
बन बैठे धरा के नियंता
धन-लोलुपता की आड़ में
लूट लिए वनस्थलियां
बेघर कर डाला।
क्या हम चूं भी न करें
निकाल अपने खूनी पंजे
किया घात पर आघात
बन गए आदमखोर।
हम भी कभी थे
देश की आन, बान और शान
तुमने मिटाई हस्ती हमारी
हरितिम झिलमिल चादर को
किया तार-तार
शहंशा थे, हम
अपने जहां के
नृशंस पशु तुम
बन बैठे बाघखोर
कुछ ही तो
बचे हैं हम
बस भी करो
अब तो
जीने दो हमें।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

नज़राना

सूरज से किरणें
चांद से चांदनी
बादल से पानी
सागर से
लहरें
सीप से मोती
दीपक से ज्योति
पत्तों से ओस की बूदें
फूलों से खुशबू
प्यार से चाहत
ओठों से मुस्कान
जीवन से आनंद
प्रिय ब्लॉगरों के लिए
लाई मैं यह खुबसूरत
नज़राना बोलों
स्वीकार करोंगे।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

नन्हीं परी

आज घर आई एक नन्हीं परी,
काली,मोटी मासूम आंखों वाली।

चंपई रंगत लिए, काले घुघराले लटों वाली,
बादलों की ओट से झांकता चांद हो जैसे।

गुलाबी ओठों पर खिली हंसी सूरज की पहली,
किरण के स्पर्श से खिलता कमल हो जैसे।

नन्हें पद चापों से बज उठती हैं पैजनियां,
रून-झुन स्वर लहरी से हर्षित होता घर-आंगन।

आपना प्रतिबिम्ब निहारू,साकार हुआ सपना मेरा,
आज घर आई एक नन्हीं परी, महके जीवन मेरा।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

फिर वो याद आए

आज फिर वो याद आए,
आहिस्ते से आना,
नजरें चुराना
बैठ जाना,
मुस्कुरा देना
और बगलें झांकना।
खामोश निगाहें बया करती़ हैं
अनगिनत अफसाने
फिर छेड़ देना बहस
आज के तरानों की
और डुब जाती है
चाय की चुश्कियों में।
फिर उठना
और चले जाना
रह जाते हैं
कई ऊलझे सवाल।
मैं जुट जाती हूं
सुलझाने में।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

सरस्वती वंदना

सर्वस्तुता मां सरस्वती देवी वीणा वादिनी।
नमो देव्यै नमः देवी नमो नारायणी।।

सर्व शक्ति दायिनी शब्दानां ज्ञान स्वरूपिणी।
महा विद्या,महा माया सर्वशक्ति दायिनी।।

जगत कल्याणमयी देवी नमो नमः।
नारायणी वासु देवी नमो नमः।।

सर्व सुख दायिनी देवी नमो नमः।
संकट हरणी पाप विमोचनी देवी नमो नमः।।

अक्षयमाला वीणा पुस्तक धारणी।
आर्या ब्रह्माणी सरस्वती महावाणी।।

सर्वकार्य फल दायनी देवी स्वरूपणी।
सर्व मांगलय मंगलमयी देवी नारायणी।।

ऊँ सरस्वतै देवी नमो नमः।
ऊँ वीणा वर वादिनी देवी नमो नमः।।



शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

मैंने आज क्या-क्या देखा

कली को फूल बनते देखा,
चिड़िया को डाल पर रोते देखा,
मां के आंसू छलकते देखा
मैंने आज क्या-क्या देखा।
सावन के बादल को गरजते देखा,
नदियों का विनाश-ताण्डव देखा,
सागर की लहरों को उफनते देखा,
मैंने आज क्या-क्या देखा।
लाइन में खड़े लोगों को देखा,
मंदिरों में भगवान को बिकते देखा,
भूख से लोगों को मरते देखा,
लाज से सिकुड़ती नारी को देखा,
मैंने आज क्या-क्या देखा।
डिग्रियों को जलते देखा,
लोगों को बिकते देखा,
अपने को पराया होते देखा,
गिरगिट को रंग बदलते देखा
मैंने आज क्या-क्या देखा।
दहेज से नारी को जलते देखा,
नारी को झंडा ढोते देखा,
नेता को चौराहे पर भाषण देते देखा,
नेता को कुर्सी से हटते देखा,
कुर्सी को कुर्सी से लड़ते देखा
मैंने आज क्या-क्या देखा।
सपनों को टूटते,लाशों को जलते देखा,
सुबह को शाम में ढलते देखा,
जिन्दगी को शामोशहर सिसकते देखा,
मैंने खुद को भीड़ में खोते देखा।

रविवार, 10 जनवरी 2010

बादल

आसमान में बादल छाये,
काले,सफेद,छोटे-मोटे,
कई – कई आकृतियों वाले,
आसमान में बादल छाये।
रिम-झिम जल बरसाते,
नदी-ताल-तल सब भर जाते,
देख किसान का मन हरषाता,
बच्चो का भी दिल बहलाता,
आसमान में बादल छाये।
चातक अपनी प्यास बुझाता,
मेढ़क टर्र – टर्र गीत सुनाता,
बिरहन को पिया की याद सताती,
धरती अपना रूप संवारती,
आसमान में बादल छाये।


गुरुवार, 7 जनवरी 2010

क्षणिकाएं

आँसू भरी निगाहों से अभी विदा कर आये हैं,
अपने मासूम अरमानों को अभी दफ़ना कर आये हैं,
सोचा था ज़िन्दगी को जिएंगे हम, पर,
जी न सके,अपने को ही जिंदा जला आए हैं हम।
**************
ज़िन्दगी भी इस कदर खुशनसीब होती है,
जहां हम होते हैं, ज़िन्दगी भी वहीं होती है।
**************
इस कदर ज़िन्दगी में खोये थे हम,
आँख खुली तो जाना,ज़िन्दगी क्या है।