गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

तू कहे तो

आसमां के चादर में जड़े सितारों सी
बसी तेरी सांसे, मेरी सांसों में ।
तू कहे तो ला दूं
झिलमिलाती चादर को
तेरे लिए।
झरनों की कल-कल निनाद
करती जल-तरंगों को
ला दूं तेरे लिए।
तू कहे तो ला दूं
ऊषा की रश्मि किरणों को
सजा दूं तेरे चेहरे को।
तू कहे तो ला दूं
उष्णता से शीतलता को
छू जाए तेरे बदन को।
ला दूं तेरे लिए
फूलों की रंगत
संवार दूं तेरे यौवन को।
तू कहे तो ला दूं
गुलमोहर के रक्ताभ पुष्पों को
लालिम कर दे तेरे होठों को।
तू कहे तो ला दूं
धरती के धानी आंचल को
ढक दे तेरे दामन को।।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

क्या कहूं

कलकत्ता के

मछुआ बाजार

का

चौराहा पार

करते हुए

गुजरा कसाई

हांकते झुंड

भेड़ और बकरे

का

विद्रोही निकला

एक बकरा

करीब आ मेरे

खींचने लगा

बैग मेरा

मुड़के देखा

कृशकाय

मासूम सा

अश्रुपूरित निगाहें

उसकी

रूला गई मुझे

मानों पूछ रही हो

मैंने किया

क्या गुनाह

भूख न मिटी मेरी

मिटाने चला भूख

तुम्हारी

क्या शेष उद्देश्य

यही मेरे जीवन का

अंतरात्मा कांप उठी

गूंज उठा

एक ही स्वर

क्या शेष उद्देश्य

यही मेरे जीवन का

किया क्यों नहीं

संरक्षण हमारा

क्यूं छोड़ दिया

यूं भटकने

जीने और मरने को

किंकर्तव्यविमूढ़ सी

देखती रही, सोचती रही

सच ही तो है

संरक्षण का नारा लगाते

हम क्या वाकई

संरक्षण दे रहे निर्बल,

कमजोर,

अपाहिज

को या फिर

स्वांग रच रहें

खेल खेल रहे

ग्रास बना रहे

इन मासूमों को

बन सर्वशक्तिमान

रक्षा कर न सके

इन मासूमों की।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

इज़हार


हां प्यार है उनसे
जैसे
चांद को चादनी से
फूलों को खुशबू से
सागर को लहरों से
आसमां को तारों से
तितली को रंगों से
मीन को पानी से
सीप को मोती से
सावन को बादल से
हां प्यार है उनसे
ऐ हवा
ले जा
संदेशा मेरे प्यार का
ले आ
संदेशा उनके प्यार का
कह दे मैं हूं मीरा
मेरे श्याम की
राधा के
गिरधारी की।।




सोमवार, 19 अप्रैल 2010

गीत



ऐ दिल बता तू क्यूं धड़के इतना
क्या प्यार हुआ है मुझको
ऐ दिल बता तू क्यूं बेकरार इतना
क्या प्यार हुआ है...........
ऐ कैसी बैचेनी, ऐ कैसी बेकरारी
ऐ दिल बता तू
क्या प्यार हुआ है उनसे
ऐ दिल बता तू
क्या प्यार हुआ है.........
देखने को तरसू , सुनने को तरसू
क्या प्यार हुआ है उनसे
ऐ दिल बता तू
क्या प्यार हुआ है मुझको।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

तुम मिले


ज़िन्दगी की राह
में चलते-चलते
यूं एक दिन
अचानक मुलाकात हुई।
ऐसा लगा
जानते हैं, वर्षों से
कुम्भ में बिछड़े
साथी हो जैसे।
बसन्त के फूलों
की तरफ महकाएं
जीवन मेरा।
सूरत इतनी प्यारी
बसा लूं आंखों
चुरा न ले कोई।
खनकती है आवाज़ ऐसे
सुनती रहूं हर पल
मासूम दिल है इतना
प्यार करती रहूं हर क्षण।
दुआं कर इतना मौला
साथ न छूटे कभी
बता ऐ साथी
दोगे साथ हमारा।



गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

क्या ज़िंदा हूं मैं

क्या ज़िंदा हूं मैं
पता ही नहीं
चारों तरफ सन्नाटा
ही सन्नाटा
गुजरा कोई इधर से
खबर ही नहीं
क्या ज़िंदा हूं मैं
नहीं आती आवाज़े
चीखने की
सिसकने की
मुस्कराने की
कराहने की
बुदबुदाने की
चीरती हुई सन्नाटे को
कौन है जिम्मेदार
इस हालात के
कभी मैं भी था
हिस्सा इस बस्ती का
ज़िन्दा था
सोचता था
रोता था
हंसता था
अब तो कुछ महसूस
ही नहीं होता
कि ज़िंदा हूं मैं।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

प्रेम


प्रेम,प्यार,इश्क,मोहब्बत
सब एक हैं या जु़दा।
अल्ला,ईश्वर,ख़ुदा,परवरदीगार
नूर में हैं समाएं सब बंदे तेरे।
प्रेम क्या है आकर्षण,
दीवानगी,ईबादत,दिल्लगी।
या फिर
ज़ुनून,पागलपन,मदहोशी।
या फिर
भूख,हृदय की रागिनी
सांसों का नर्तन,
रूहों का मिलन
ज़िस्मों का मिलन।
क्यूं हैं दुनियां दुश्मन इसकी
क्यूं बिछाए रोड़े जात-पात के
क्यूं बिछाए कांटे गरीबी-अमीरी के।

क्यूं बने दुश्मन अपने ही प्यार के
क्यूं देते धोखा अपने ही प्यार को
क्यूं करते ज़लील अपने ही प्यार को
क्यूं लेते ज़ान अपने ही प्यार की।
कसमें खाते ताउम्र साथ निभाने की
बन जाते हत्यारे, अपने ही प्यार के।
कहां गई वो मिट्ठास,बन गए पशु
जिस सूरत को बसाया था, आंखों में
तेजाब से बदरंग किया उस को।
कैसा है यह प्यार,आज-कल समझ नहीं आता
जिसे चाहा,जिसे पूजा,उसे ही बेआबरू,बेघर किया।


बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नारी

नारी हूं मैं अबला नहीं
जो तुम कहते देवी
पूजते उसके चरणों को
शक्ति में है तुमसे भारी
जननी है तुम्हारी
क्यूं जलते शक्ति से उसके
तूमपे है वो भारी
सोच, घबराते
सौ बहाने निकालते
प्रताड़ना के
नारी को नारी से लडा़ते
देख तमाशा इतराते
कहते तू अबला है
तांडव करते पुरूषत्व का
सुन ऐ पुरूष अहंकार
में मत हो चूर
नारी है तुझ पे भारी
न जगा रणचंडी को
नस्तनाबूद कर देगी
तेरे अस्तित्व को
वंदन कर मां है तेरी
आमंत्रित कर श्री को
मंहकाएगी
तेरे जीवन
बगिया को
पूरक है तेरी
सृजन कर
खुशहाल समाज का
नई कोपले प्रस्फुटित हो
पल्लवित,पुष्पित हो
महके घर-आंगन।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

तलाश


खुद की तलाश में

क्यूं भटक रहे हैं।

मैं नाम हूं

मैं ज़िस्म हूं

मैं जान हूं

मैं रूह हूं

हम किस गली

से गुजर रहे हैं।

अपना कोई

ठिकाना नहीं।

अपना कोई

फसाना नहीं।

अपनी कोई

मंजिल नहीं।

भटक रहें हैं

मायावी जंगल में।

सब है पर

कुछ भी नहीं।

फिर भी तलाश है

फिर भी प्यास है ।

क्यूं भटक रहे हैं हम

खुद की तलाश में ।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

बोलो ना


चांद से मुखड़े पर
उदासी क्यूं छाई
बोलो ना
बसन्त में पतझड़ सी
उदासी क्यूं है।
फाग भी रीता निकला
बसन्त का करो स्वागत
बांह फैला कर
आगोश में भर लो
न जाने दो कहीं
रोक लो।
ग्रीष्म की तपिस
भी न झूलसा सकी
प्यार की कपोले
फिर फुटेगी सावन
के महिने में।
रिम-झिम बारिश
कर देगी सराबोर
सूने कोने को।
फिर लहलहा उठेगा
दिल का सूनापन
फिर खिलेंगे
अरमां के फूल।
शरद के नीले आसमां तले
सजेगी अरमानों की बारात
खुशी के नगमें बज उठेंगे
पिया मिलन की आंस में।
शिशिर की ठिठुरन में
एक हो जाएंगे
होगा
इंतजार
नए बंसन्त का
बोलो ना
क्यूं हो उदास।