शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

मैंने आज क्या-क्या देखा

कली को फूल बनते देखा,
चिड़िया को डाल पर रोते देखा,
मां के आंसू छलकते देखा
मैंने आज क्या-क्या देखा।
सावन के बादल को गरजते देखा,
नदियों का विनाश-ताण्डव देखा,
सागर की लहरों को उफनते देखा,
मैंने आज क्या-क्या देखा।
लाइन में खड़े लोगों को देखा,
मंदिरों में भगवान को बिकते देखा,
भूख से लोगों को मरते देखा,
लाज से सिकुड़ती नारी को देखा,
मैंने आज क्या-क्या देखा।
डिग्रियों को जलते देखा,
लोगों को बिकते देखा,
अपने को पराया होते देखा,
गिरगिट को रंग बदलते देखा
मैंने आज क्या-क्या देखा।
दहेज से नारी को जलते देखा,
नारी को झंडा ढोते देखा,
नेता को चौराहे पर भाषण देते देखा,
नेता को कुर्सी से हटते देखा,
कुर्सी को कुर्सी से लड़ते देखा
मैंने आज क्या-क्या देखा।
सपनों को टूटते,लाशों को जलते देखा,
सुबह को शाम में ढलते देखा,
जिन्दगी को शामोशहर सिसकते देखा,
मैंने खुद को भीड़ में खोते देखा।

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपने जो देखा
    उसे लिखा
    बाते सच्ची है
    रचना अच्छी है

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  2. Apki rachna aachi lagi . abhivyakti ka nirala dhang....Likhte rahe.

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  3. हर्शिता जी आपने तो इतना कुछ देख लिया हमने तो कम्पयूटर स्क्रीन को ही देखा आज बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है बधाई

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  4. बहुत सुन्दर भाव लिए सुन्दर रचना
    बहुत बहुत आभार

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  5. आप सभी का हृदय से धन्यवाद देना चाहती हूँ कि आप सभी लोगों ने मेरा मनोबल बढाया।

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  6. बहुत सुन्दर भाव लिए सुन्दर रचना
    बहुत बहुत आभार

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  7. हर्शिता जी आपने तो इतना कुछ देख लिया

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