हर्षिता
शनिवार, 18 जुलाई 2015
गुरुवार, 17 अप्रैल 2014
रविवार, 1 दिसंबर 2013
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
क्षणिका
उसने कहा साथ निभाएंगे,न जाने क्यूं चल दिए,
हम तकते रहे,सोचते रहे, जाने क्यूं चल दिए यूं
क्यूं लाड़ लड़ाया उन पलों को,जब यूं ही चले जाना था
आंखों से बहते आंसू ने पूछा थर्रथराते ओठों से
क्या हुई ख़ता तुझसे,जो चल दिए यूं मुंह मोड़ के
सांसों ने पूछा क्यूं रूक गई धड़कन,पूर्वी पवन के झोकें से
क्यूं बेखबर,बेजान किया,इस बेमरउवत पवन के झोकें ने।।
रविवार, 19 दिसंबर 2010
लम्हें
यादों की गलियारों से कुछ लम्हें
अकसर याद आते हैं
छोड़ जाते हैं ओठों पर हल्की सी मुस्कान
और गुदगुदा जाते हैं उन पलों को।
और कुछ दे जाते हैं आंखों में नमी
छेड़ जाते हैं तार दर्द के वीणा की
झंकृत कर देते हृदय के लहरों को
रस लहरी निकल पड़ती है आंखों के कोरों से।
और कुछ लम्हें यूं ही अकसर याद आते हैं
कोहरें से लिपटी चादर हो जैसी,कुछ अनकही सी
कुछ अनसुनी सी,कुछ अनदिखी सी।
बुधवार, 8 सितंबर 2010
चाहत
काफी अंतराल के बाद आज फिर आपकी ख़िदमत में उपस्थित हुई हूं चंद पंक्तियों के साथ इस उम्मीद से कि मुझे आपसे पहले जैसा ही प्यार एवं आशिर्वाद मिलेगा। स्वयं की बिमारी से जूझती हुई पर आप से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती।
चाहत
जीने की चाह में इतने मशरूफ़ हुए कि
जी रहे हैं हम।
सोचा तो लगा कि कहां जी रहे हैं हम
दिन गिन रहे हैं हम।
उम्मीद है कि दामन छोड़ती ही नहीं कि
जी रहे हैं हम।
जीने की चाह ने आज इस मुकाम पे ला छोड़ा कि
एक तरफ जीने की उम्मीद और एक तरफ
नाउम्मीदी ने रखा है दामन थाम, इस कशमोकश में हैं कि
जाए तो कहां जाए हम।
इस तड़प ने फिर जला दी शमां चाहत जीने की
और फिर से जी रहे हैं हम।।