काफी अंतराल के बाद आज फिर आपकी ख़िदमत में उपस्थित हुई हूं चंद पंक्तियों के साथ इस उम्मीद से कि मुझे आपसे पहले जैसा ही प्यार एवं आशिर्वाद मिलेगा। स्वयं की बिमारी से जूझती हुई पर आप से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती।
चाहत
जीने की चाह में इतने मशरूफ़ हुए कि
जी रहे हैं हम।
सोचा तो लगा कि कहां जी रहे हैं हम
दिन गिन रहे हैं हम।
उम्मीद है कि दामन छोड़ती ही नहीं कि
जी रहे हैं हम।
जीने की चाह ने आज इस मुकाम पे ला छोड़ा कि
एक तरफ जीने की उम्मीद और एक तरफ
नाउम्मीदी ने रखा है दामन थाम, इस कशमोकश में हैं कि
सुबह की धूप आज कितनी खिली है कई दिनों बाद मानों सूरज की किरणें बुहार रही धरती के हरीतिम आंचल को।
स्वच्छ,निर्मल,स्वछंद विचरण कर रही ताल तलैया, नहर नदी, खेत खलिहान पहाड़ पठार ,सागर समुन्दर,नभ और गगन चहुंओर बांह फैलाएं चटकती धूप लहराएं अपने आंचल को।
पीत हरित रंगों में समा गई धरा अपलक निहार रही मैं अनुपम,अलौकिक,अद्भुत प्रकृतिक सौन्दर्य को चौंधिया गई आंखें,खिल गई अविस्मृत मुस्कान ओठों पर खो गई आनन्द परमानन्द के संयोजन में और चमक उठती हैं आंखें जैसे हरी घास को देखकर गाय की।
बारिश की पहली बूंदों ने पत्ता दर पत्ता धो डाला धूल ,गर्द और मिट्टी की चादर,बिछी थी कितने दिनों, सालों, महिनों, वर्षों से निखर उठे सुकोमल,चटकार रंगों वाले पत्तें।
बारिश की पहली बूंदों से स्पर्शित मिट्टी सोधी खुशबू से मंहका खेत खलिहान लाल मखमली कीड़ों ने स्वागत किया बूंदों का निकल पड़े अगवानी में।
तप्त धरा की प्यास बूझी खुशी के आंसू बन गए बादल बरसे घुमड़-घुमड़कर चमक उठी आंखें कृषक की नव सृजन की आस में।
झूम उठी डाली-डाली,पत्ती-पत्ती नर्तन करने लगी बूंदों संग गुनगुनाने लगी सुमधुर संगीत वर्षा ऋतु के आवन के।
पहाड़ों,जंगलों और सड़कों में आता नहीं जवाब कोई भी सूनी राहों से। ख़ामोश क्यूं हो गई जु़बान इन विरानों में चुप क्यूं हैं निगाहें कहती क्यूं नहीं। दिल के राज़ क्यूं नहीं खोलती ओठों तक आते ही क्यूं रूक जाती कह कर भी अनकही रह जाती हैं बातें क्या कहें ,किससे कहें,कोई सुनता ही नहीं।
यही देख बस ख़ामोश हो जाती है निगाहें इन कशमोकश में छलक जाती है आंखें पी जाती है दर्द के प्याले गुनने लगती है अफ़सानें। ढूंढने लगती है ख़ामोश हो निगाहें गुजरेंगे परवाने शायद इन्हीं राहों से।
प्रभू जी सुन लो अरज हमारी तू ही रब्बा,तू ही मौला,तू ही पालनहार प्रभू जी........................................। छाया घनघोर अंधियारा,सुझे न राह कोई तू ही बता, जाऊं मैं कहां प्रभू जी प्रभू जी................................। बन दीपक बरसा रहमत, ओ मेरे मौला सुन ले पुकार मुझ गरीब की, ओ गरीब नवाज़। तू ही ईसा,तू ही मूसा, तू ही पालनहार प्रभू जी........................................। तरस रही तेरे दरस को,अब तो आन मिलो प्रभू जी तू ही श्याम, तू ही राम, तू ही पालनहार प्रभू जी.........................................। तेरे नूर में डूबा ऐ जग सारा, तेरे इश्क में रंगा ऐ तन मेरा तू ही अल्ला, तू ही ख़ुदा, तू ही पालनहार प्रभू जी..........................................। लगन में झूमे तेरे , ऐ मन मस्त मेरा आ तू भी झूम ले, ओ मेरे प्रभू जी।
ज़िन्दगी भी क्या चीज है वक्त बेवक्त ला खडी़ करती है। ऐसे चौराहे पर जहां सब कुछ ऊलझ जाता है रह जाती है कुछ यादें मीठी सी। उन पलों को जीते-जीते। कब बन जाती है यादें पता ही नहीं चलता। होश में आते ही लगते हैं सोचने कैसे बन गई ये यादें। वो लड़ना-झगड़ा और बेबाकी बातें उलझना फिर सुलझाना। बन आलोचक टांग खींचना फिर मार्गदर्शक बन स्वप्नद्रष्टा बनाना। अचानक यूं अलविदा कह चले जाना, हो जाता है जानलेवा। और रह जाती हैं यादें। जिन्दगी भी क्या है नित्य नूतन रूप है दिखलाती हो जाते हैं विवश जीने को उन लम्हों को, उन यादों को।
वर्षों की हुई साध पूरी मिला मुझे अनोखा शागिर्द। कहा.. बना लो शागिर्द मुझे उस्ताद। सीखा दो चैटिंग टीप्स बन जाऊं धुरन्धर इस फील्ड का। मैंने कहा एवोमत्स वत्स इन्वाइट करो मित्र को। शुरू करो फिंगर को की बोर्ड पर नचाना। प्रारंभ हुई चैटिंग एक..दो..तीन बीते घण्टे कई । कहने लगा.. वाह उस्ताद वाट ए इक्सपिरिअन्स
वन्डरफुल फीलिंग्स
वाट ए लवली थिंग्स। मैंने कहा... हो गई दीक्षा पूरी तुम्हारी,बन गए शहंशा। पर वत्स और भी हैं फायदे इसके मस्तिष्क को मिलती पुष्टी मुख को मिलती विश्रांति हृदय को मिलता शुकून फिंगर को मिलता व्यायाम। शागिर्द ने किया दण्डवत नतमस्तक हो कहने लगा बना दी लाइफ मेरी उस्ताद। देना चाहता हूं दक्षिणा गुरूदेव आज्ञा दे तो शुरू करूं झट से उठ खड़े हुए उस्ताद कह उठे न बन तू भष्मासूर वरना हो जाऊंगा मैं चकमासूर लो चला मैं अब इन्ज्वाय कर लाइफ अपनी बन गया तू एक दिन का शागिर्द ।
(मदरस डे के उपलक्ष्य में मैं आज उन सभी मांओं को और जो महिलाएं जिन्हें किन्हीं कारणवश मातृत्व का सुख प्राप्त न हो सका पर उनके अंदर उमड़ते सागरे से भी गहरे मातृत्व की भावना को शत-शत नमन करती हूं। आज के इस बदलते परिवेश में जहां रोजमर्रा की आपा-धापी में वक्त ही नहीं मिलता ख़ुद के लिए, ऐसे में समय निकाल पाना जहां हम अपनों से दूर हैं मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। चलिए आज शपथ लेते हैं कि कुछ समय के लिए ही सही अपनी जड़ों से जुड़े़,उसे सुखने नहीं दें, वरना हम भी कहीं भाव शून्य न हो जाए। शून्यता निर्जीवता का पर्याय है। ईश्वर की सबसे खुबसूरत धरोहर मानव जो मानवता के बिना अधूरी है,उसे परिपूर्ण बनाएं और आनंदपूर्वक रहें और आज कुकुरमूत्ते की तरह छा रहें विधवा आश्रम एवं बुजुर्ग आश्रम के तादात को रोक सकें और इस धरा की बगियां को प्यार एवं सद्भावना के खाद से सींचे।) प्रकृति ज़िस्म और ज़ान है मां तूं । क्या कहूं तेरे बिन कुछ भी नहीं मैं। तरस रही मैं तेरे आंचल दूध हाथों को। क्या भूल हुई, मुझसे क्यूं ख़फा है मुझसे। भूला दिया तूझे इन बदलते चेहरों में। होश ही न था जा रही किन अंधेरी गुफाओं में निकल पाना नामूमकिन है मां। आ जा, तू मां पकड़ मेरी उंगली ले चल उस दुनियां में। जहां न हो मजबूरियां बेबसी तन्हाईयां। सिर्फ हो खुशियां ही खुशियां। वर्षों से जगी मैं सो न सकी कभी मैं। सोना है आज़ मुझे गोद में तेरे निर्भय और
सड़क किनारे खडा़ यह बरगद देख रहा किसे, न जाने कब वह आएगा। कई सदियां बीती,सरकारें बदली,ऋतुएं आई पर तटस्थ दृष्टा बन, देखता रहा............. । निर्जन,उपेक्षित सा पडा़, हर पल सोचे ऐसा क्यूं है औरतें नहीं बांधती रक्षा सूत्र, न मंगल सूत्र। और न ही जलते धूप-दीप और न चढा़ नैवेद्य क्या मैं शापित हूं,जात बहिष्कृत या फिर बंन्ध्या पक्षियों का बसेरा तो है पानी भी नहीं देता कोई। फिर भी खडा़ हूं झंझावतों को झेलता शायद यही है नियति मेरी। जीना बस, जीते रहना, सोचना मत, कल क्या होगा।
आसमां के चादर में जड़े सितारों सी बसी तेरी सांसे, मेरी सांसों में । तू कहे तो ला दूं झिलमिलाती चादर को तेरे लिए। झरनों की कल-कल निनाद करती जल-तरंगों को ला दूं तेरे लिए। तू कहे तो ला दूं ऊषा की रश्मि किरणों को सजा दूं तेरे चेहरे को। तू कहे तो ला दूं उष्णता से शीतलता को छू जाए तेरे बदन को। ला दूं तेरे लिए फूलों की रंगत संवार दूं तेरे यौवन को। तू कहे तो ला दूं गुलमोहर के रक्ताभ पुष्पों को लालिम कर दे तेरे होठों को। तू कहे तो ला दूं धरती के धानी आंचल को ढक दे तेरे दामन को।।
हां प्यार है उनसे जैसे चांद को चादनी से फूलों को खुशबू से सागर को लहरों से आसमां को तारों से तितली को रंगों से मीन को पानी से सीप को मोती से सावन को बादल से हां प्यार है उनसे ऐ हवा
ले जा संदेशा मेरे प्यार का ले आ संदेशा उनके प्यार का कह दे मैं हूं मीरा मेरे श्याम की राधा के गिरधारी की।।
ऐ दिल बता तू क्यूं धड़के इतना क्या प्यार हुआ है मुझको ऐ दिल बता तू क्यूं बेकरार इतना क्या प्यार हुआ है........... ऐ कैसी बैचेनी, ऐ कैसी बेकरारी ऐ दिल बता तू क्या प्यार हुआ है उनसे ऐ दिल बता तू क्या प्यार हुआ है.........
देखने को तरसू , सुनने को तरसू क्या प्यार हुआ है उनसे ऐ दिल बता तू क्या प्यार हुआ है मुझको।
ज़िन्दगी की राह में चलते-चलते यूं एक दिन अचानक मुलाकात हुई। ऐसा लगा जानते हैं, वर्षों से कुम्भ में बिछड़े साथी हो जैसे। बसन्त के फूलों की तरफ महकाएं जीवन मेरा। सूरत इतनी प्यारी बसा लूं आंखों चुरा न ले कोई। खनकती है आवाज़ ऐसे सुनती रहूं हर पल मासूम दिल है इतना प्यार करती रहूं हर क्षण। दुआं कर इतना मौला साथ न छूटे कभी बता ऐ साथी दोगे साथ हमारा।
क्या ज़िंदा हूं मैं पता ही नहीं चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा गुजरा कोई इधर से खबर ही नहीं क्या ज़िंदा हूं मैं नहीं आती आवाज़े चीखने की सिसकने की मुस्कराने की कराहने की बुदबुदाने की चीरती हुई सन्नाटे को कौन है जिम्मेदार इस हालात के कभी मैं भी था हिस्सा इस बस्ती का ज़िन्दा था सोचता था रोता था हंसता था अब तो कुछ महसूस ही नहीं होता कि ज़िंदा हूं मैं।
प्रेम,प्यार,इश्क,मोहब्बत सब एक हैं या जु़दा। अल्ला,ईश्वर,ख़ुदा,परवरदीगार नूर में हैं समाएं सब बंदे तेरे। प्रेम क्या है आकर्षण, दीवानगी,ईबादत,दिल्लगी। या फिर ज़ुनून,पागलपन,मदहोशी। या फिर भूख,हृदय की रागिनी सांसों का नर्तन, रूहों का मिलन ज़िस्मों का मिलन। क्यूं हैं दुनियां दुश्मन इसकी क्यूं बिछाए रोड़े जात-पात के क्यूं बिछाए कांटे गरीबी-अमीरी के। क्यूं बने दुश्मन अपने ही प्यार के क्यूं देते धोखा अपने ही प्यार को क्यूं करते ज़लील अपने ही प्यार को क्यूं लेते ज़ान अपने ही प्यार की।
कसमें खाते ताउम्र साथ निभाने की
बन जाते हत्यारे, अपने ही प्यार के। कहां गई वो मिट्ठास,बन गए पशु जिस सूरत को बसाया था, आंखों में तेजाब से बदरंग किया उस को। कैसा है यह प्यार,आज-कल समझ नहीं आता जिसे चाहा,जिसे पूजा,उसे ही बेआबरू,बेघर किया।
नारी हूं मैं अबला नहीं जो तुम कहते देवी पूजते उसके चरणों को शक्ति में है तुमसे भारी जननी है तुम्हारी क्यूं जलते शक्ति से उसके तूमपे है वो भारी सोच, घबराते सौ बहाने निकालते प्रताड़ना के नारी को नारी से लडा़ते देख तमाशा इतराते कहते तू अबला है तांडव करते पुरूषत्व का सुन ऐ पुरूष अहंकार में मत हो चूर नारी है तुझ पे भारी न जगा रणचंडी को नस्तनाबूद कर देगी तेरे अस्तित्व को वंदन कर मां है तेरी आमंत्रित कर श्री को मंहकाएगी तेरे जीवन बगिया को पूरक है तेरी सृजन कर खुशहाल समाज का
चांद से मुखड़े पर उदासी क्यूं छाई बोलो ना बसन्त में पतझड़ सी उदासी क्यूं है। फाग भी रीता निकला बसन्त का करो स्वागत बांह फैला कर आगोश में भर लो न जाने दो कहीं रोक लो। ग्रीष्म की तपिस भी न झूलसा सकी प्यार की कपोले फिर फुटेगी सावन के महिने में। रिम-झिम बारिश कर देगी सराबोर सूने कोने को। फिर लहलहा उठेगा दिल का सूनापन फिर खिलेंगे अरमां के फूल। शरद के नीले आसमां तले सजेगी अरमानों की बारात खुशी के नगमें बज उठेंगे पिया मिलन की आंस में। शिशिर की ठिठुरन में एक हो जाएंगे होगा इंतजार
जागती आंखे हर पल निहारे सोचे कौन है तारणहार सुलझे-अनसुलझे मसले रोटी-कपडा़-मकान या माओवाद,आतंकवाद, जातिवाद, पार्टीवाद प्रादेशिकता,आंचलिकता भाषायी,धार्मिक मसले या मंहगाई,बेरोजगारी भूखमरी की मार नारी व्यथा भ्रूण हत्या दहेज शिक्षा या प्राकृतिक झंझावतों को झेलता इंसान कौन है तारणहार नेता,अभिनेता पत्रकार,सामाजिक कार्यकर्ता नौकरशाह योगीराज,महाराज और आधुनिक बाबा या खुद हम।
लक्ष्मण झूले पर चलते चलते लोगों और मोटर साइकिलों की आवाजाही में सलाम करते हुए मुस्कुराकर यूं चुप चाप चले जाना बन्दरों की धमाचौकडी़ को निहारती भागीरथी की निर्मल पावन जीवनदायी जलधारा में लुत्फ उठाते युगल जोडे़ आज भी दृश्य चलचित्र की भांति ज़हन में कौंध उठते हैं।
सिलवर,ब्लैक बराऊन,चेरी स्टाइलिस,स्लाइडिंग स्लिम,सेक्सी वॉव, क्या वॉडी है सेमसंग,एलजी मोटोरोला फ्लाई,स्पाईस जवां दिलों की धड़कन नेटिंग,चेटिंग,सरफिंग और कॉन्फ्रेनसिंग कर लो दुनियां मुट्ठी में वॉव, वाह क्या चीज है मोबाइल।
काफी दिनों के बाद आज जब मैं लिखने बैठी तो बहुत सारी बाते ज़हन में उठ रही हैं,समझ में नहीं आ रहा है कि शुरूआत कहां से करूं। मनोज सर हमेशा मुझसे कहते हैं कि कविता के अलावा और कुछ लिखो,चलिए फिर मैं आज से ही इसका श्रीगणेश करती हूं। आरक्षण शब्द काफी जाना पहचाना है। बचपन से ही सुनती आ रही हूं।हमारे जीवन में जैसे रच बस सा गया है। फेबिकोल के मजबूत जोड़ जैसा है,छुडा़ए छुटता ही नहीं। संविधान में इसे सुशोभित किया गया है, तब से आज तक काफी फल-फूल रहा है, क्यों न हो हमारे कर्णधार,जो सत्ता को सुशोभित करने के साथ-साथ सामाजिक उत्थान में सदैव तत्पर रहते हैं,समाज का कल्याण ही जिनका एक मात्र उद्देश्य है। हमारे प्रिय नेताओं का तो सबसे मूल्यवान मुद्दा है आरक्षण। इसकी वज़ह से तो कई सरकारे आई और चली गई और तोहफे में आत्मदाह,आगजनी,खू़न-खराबा न जाने कितने मूल्यवान तोहफे दिए होंगे जो भुलाएं नहीं भुलाएं जाते,क्या करें,ये हम सबसे प्यार जो इतना करते हैं। कल 8 मार्च है महिला दिवस के नाम। कल महिला आरक्षण बिल पेश किया जाएगा। इसके नाम से ही सियासतदारों में होड़ मच गई है,महिलाओं के हित एवं कल्याण को ध्यान में रखते हुए महिला बिल में 50 प्रतिशत आरक्षण करने के लिए कटिबद्ध है और राजनीति भी गरमा गई है। क्या करें बिचारे काफी सालों से सुकार्य में लगे हैं,लेकिन सफलता ही नहीं मिली। देखते हैं कल क्या होता है,उम्मीद ज्यादा है क्योंकि सत्ता की सिरमौर्य महिलाओं के हाथ में ही है। कुछ सवाल हैं जो मेरे ज़हन में कुलबुला रहें हैं क्या आज महिला आरक्षण की आवश्यकता है,जहां एक ओर हम कहते हैं कि स्त्री-पुरूष बराबर है,दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों एक दूसरे के साथ कदम मिलाकर चल रहें है। महिला आरक्षण के नाम पर उसे पीछे ढकेलने जैसा नहीं होगा। महिलाएं अपना आत्म सम्मान तो पा चुकी हैं और कुछ पाने की राह पर सतत् अग्रसर हैं। महिला आरक्षण के नाम पर नौटकी नहीं तो और क्या। आरक्षण के नाम पर कहीं पीछे ढकेलने की साज़िश तो नहीं, नारी सशक्तिकरण के नाम पर छलावा तो नहीं। क्या आज इस आरक्षण की आवश्यकता है। क्या आरक्षण मिल जाने से मुद्दा खत्म हो जाएगा। डर है कि यह राजनीतिज्ञों की घटिया खेल का हिस्सा न बन कर रह जाए। उम्मीद पर तो दुनिया कायम है, देखते हैं क्या होता है।
मेरा छोटा प्रयास यदि बाघ बचावो अभियान में योगदान दे सकता है तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी,क्योंकि यह हम सभी का कर्त्तब्य भी है कि इस धरा के सौन्दर्य को कभी न मिटाएं।
हम तुम एक ही माल्लिक के बंदे फिर क्यू हैं ये दुरियां हमने तो नहीं बिगा़डा़ संतुलन इस धरा का फिर क्यू नहीं जीने देते हमें। तुम हो विवेकशील पशु हम हैं नृशंस पशु बन बैठे धरा के नियंता धन-लोलुपता की आड़ में लूट लिए वनस्थलियां बेघर कर डाला। क्या हम चूं भी न करें निकाल अपने खूनी पंजे किया घात पर आघात बन गए आदमखोर। हम भी कभी थे देश की आन, बान और शान तुमने मिटाई हस्ती हमारी हरितिम झिलमिल चादर को किया तार-तार शहंशा थे, हम अपने जहां के नृशंस पशु तुम बन बैठे बाघखोर कुछ ही तो बचे हैं हम बस भी करो अब तो जीने दो हमें।
सूरज से किरणें चांद से चांदनी बादल से पानी सागर से लहरें सीप से मोती दीपक से ज्योति पत्तों से ओस की बूदें फूलों से खुशबू प्यार से चाहत ओठों से मुस्कान जीवन से आनंद प्रिय ब्लॉगरों के लिए लाई मैं यह खुबसूरत नज़राना बोलों
आज फिर वो याद आए, आहिस्ते से आना, नजरें चुराना बैठ जाना, मुस्कुरा देना और बगलें झांकना। खामोश निगाहें बया करती़ हैं अनगिनत अफसाने फिर छेड़ देना बहस आज के तरानों की और डुब जाती है चाय की चुश्कियों में। फिर उठना और चले जाना रह जाते हैं कई ऊलझे सवाल। मैं जुट जाती हूं सुलझाने में।
कली को फूल बनते देखा, चिड़िया को डाल पर रोते देखा, मां के आंसू छलकते देखा मैंने आज क्या-क्या देखा। सावन के बादल को गरजते देखा, नदियों का विनाश-ताण्डव देखा, सागर की लहरों को उफनते देखा, मैंने आज क्या-क्या देखा। लाइन में खड़े लोगों को देखा, मंदिरों में भगवान को बिकते देखा, भूख से लोगों को मरते देखा, लाज से सिकुड़ती नारी को देखा, मैंने आज क्या-क्या देखा। डिग्रियों को जलते देखा, लोगों को बिकते देखा, अपने को पराया होते देखा, गिरगिट को रंग बदलते देखा मैंने आज क्या-क्या देखा। दहेज से नारी को जलते देखा, नारी को झंडा ढोते देखा, नेता को चौराहे पर भाषण देते देखा, नेता को कुर्सी से हटते देखा, कुर्सी को कुर्सी से लड़ते देखा मैंने आज क्या-क्या देखा। सपनों को टूटते,लाशों को जलते देखा, सुबह को शाम में ढलते देखा, जिन्दगी को शामोशहर सिसकते देखा, मैंने खुद को भीड़ में खोते देखा।
आसमान में बादल छाये, काले,सफेद,छोटे-मोटे, कई – कई आकृतियों वाले, आसमान में बादल छाये। रिम-झिम जल बरसाते, नदी-ताल-तल सब भर जाते, देख किसान का मन हरषाता, बच्चो का भी दिल बहलाता, आसमान में बादल छाये। चातक अपनी प्यास बुझाता, मेढ़क टर्र – टर्र गीत सुनाता, बिरहन को पिया की याद सताती, धरती अपना रूप संवारती, आसमान में बादल छाये।
आँसू भरी निगाहों से अभी विदा कर आये हैं, अपने मासूम अरमानों को अभी दफ़ना कर आये हैं, सोचा था ज़िन्दगी को जिएंगे हम, पर, जी न सके,अपने को ही जिंदा जला आए हैं हम। ************** ज़िन्दगी भी इस कदर खुशनसीब होती है, जहां हम होते हैं, ज़िन्दगी भी वहीं होती है। **************
इस कदर ज़िन्दगी में खोये थे हम, आँख खुली तो जाना,ज़िन्दगी क्या है।