उन्नत भाल पर लहराते श्वेत केश
बगुलों की अनगिनत पंक्तियां अठखेलियां कर रही हो जैसे।
श्वेत दंत पंक्तियां झांक रही हैं होठों की ओट से, व्याकुल है कुछ कहने को
मगर मौन हो जाते हैं होठ, बिखरा देते हैं फूलों सी हंसी।
भृकुटी तन जाती है दुर्वासा की तरह, संयमित होते चाणक्य की तरह।
पिता तुल्य स्नेह लुटाते, कभी बन सखा आस बढ़ाते
शिशु सी निश्छल हंसी से लुटते हिय के तार ।
बज उठते हैं सुरों की राग-रागिनियां सुरमणियों के स्पर्श से
मृग शावक की किल्लौरियों सी नन्हीं उमंगे उमड़नें लगती है।
जीवन संध्या के तटबंधों से टकराकर बिखर जाती है
पाने को मचल उठता दिल बालपन के खिलौने की तरह।
काश..............................ऐसा न होता।
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
काश
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009
कली
--- साधना राय
डार पे इठलाती,
झूमती
मदमस्त कली
आनंद,
जीवन
भंवरे की मस्ती
आहत,
मर्माहत
जीजिविषा
उजड़ी ज़िन्दगी
डार से गिरी
अधखिली
कालावित।।
***
डार पे इठलाती,
झूमती
मदमस्त कली
आनंद,
जीवन
भंवरे की मस्ती
आहत,
मर्माहत
जीजिविषा
उजड़ी ज़िन्दगी
डार से गिरी
अधखिली
कालावित।।
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