बुधवार, 26 मई 2010

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी भी क्या चीज है
वक्त बेवक्त ला खडी़ करती है।
ऐसे चौराहे पर
जहां सब कुछ ऊलझ जाता है
रह जाती है कुछ यादें मीठी सी।
उन पलों को जीते-जीते।
कब बन जाती है यादें
पता ही नहीं चलता।
होश में आते ही
लगते हैं सोचने
कैसे बन गई ये यादें।
वो लड़ना-झगड़ा और बेबाकी बातें
उलझना फिर सुलझाना।
बन आलोचक टांग खींचना
फिर मार्गदर्शक बन
स्वप्नद्रष्टा बनाना।
अचानक यूं अलविदा कह
चले जाना, हो जाता है जानलेवा।
और रह जाती हैं यादें।
जिन्दगी भी क्या है
नित्य नूतन रूप है दिखलाती
हो जाते हैं विवश जीने को
उन लम्हों को, उन यादों को।

गुरुवार, 20 मई 2010

एक दिन का शागिर्द


वर्षों की हुई साध पूरी
मिला मुझे अनोखा शागिर्द।
कहा.. बना लो शागिर्द
मुझे उस्ताद।
सीखा दो चैटिंग टीप्स
बन जाऊं धुरन्धर
इस फील्ड का।
मैंने कहा एवोमत्स वत्स
इन्वाइट करो मित्र को।
शुरू करो फिंगर को
की बोर्ड पर नचाना।

प्रारंभ हुई चैटिंग
एक..दो..तीन बीते घण्टे कई ।
कहने लगा.. वाह उस्ताद

वाट ए इक्सपिरिअन्स
वन्डरफुल फीलिंग्स
वाट ए लवली थिंग्स।
मैंने कहा... हो गई दीक्षा
पूरी तुम्हारी,बन गए शहंशा।
पर वत्स और भी हैं फायदे इसके
मस्तिष्क को मिलती पुष्टी
मुख को मिलती विश्रांति
हृदय को मिलता शुकून
फिंगर को मिलता व्यायाम।
शागिर्द ने किया दण्डवत
नतमस्तक हो कहने लगा
बना दी लाइफ मेरी उस्ताद।

देना चाहता हूं दक्षिणा गुरूदेव
आज्ञा दे तो शुरू करूं
झट से उठ खड़े हुए उस्ताद
कह उठे न बन तू भष्मासूर
वरना हो जाऊंगा मैं चकमासूर

लो चला मैं अब
इन्ज्वाय कर लाइफ अपनी
बन गया तू एक दिन का शागिर्द ।


शुक्रवार, 14 मई 2010

मेरा चांद


बादल से क्यूं झांकता है मेरा चांद।
आज फिर दिखा बन चौदहवी का चांद।।

कुमुदनी है आतुर तेरी चांदनी से मुकुलित होने को।
चकोर है तकता रहता तेरे दर्शन का रस पाने को।।

वो निर्मोही क्यों छिपता रहता बादलों की ओट में।
देखता रहता क्यूं मधुर मिलन को चांदनी रात में।।

चांदनी से निकला आज मेरा चांद बर्षों बाद।
उतरा ज़मीन पे, समा गई स्निग्ध चांदनी मुझमें।।

सुलझ गई, अनसुलझी लटे, जो उलझी थी मुझमें।
मकरन्द छिप गया कमल दल से अभिसार में।।

हुई चाहत पूरी स्वीकारा जो तुने प्रणय निवेदन।
पूरनमासी रात, मिलन को आना ओ मेरे चांद।।


सोमवार, 10 मई 2010

मां

(मदरस डे के उपलक्ष्य में मैं आज उन सभी मांओं को और जो महिलाएं जिन्हें किन्हीं कारणवश मातृत्व का सुख प्राप्त न हो सका पर उनके अंदर उमड़ते सागरे से भी गहरे मातृत्व की भावना को शत-शत नमन करती हूं। आज के इस बदलते परिवेश में जहां रोजमर्रा की आपा-धापी में वक्त ही नहीं मिलता ख़ुद के लिए, ऐसे में समय निकाल पाना जहां हम अपनों से दूर हैं मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। चलिए आज शपथ लेते हैं कि कुछ समय के लिए ही सही अपनी जड़ों से जुड़े़,उसे सुखने नहीं दें, वरना हम भी कहीं भाव शून्य न हो जाए। शून्यता निर्जीवता का पर्याय है। ईश्वर की सबसे खुबसूरत धरोहर मानव जो मानवता के बिना अधूरी है,उसे परिपूर्ण बनाएं और आनंदपूर्वक रहें और आज कुकुरमूत्ते की तरह छा रहें विधवा आश्रम एवं बुजुर्ग आश्रम के तादात को रोक सकें और इस धरा की बगियां को प्यार एवं सद्भावना के खाद से सींचे।)

प्रकृति
ज़िस्म
और ज़ान
है मां तूं ।
क्या कहूं
तेरे बिन
कुछ भी
नहीं मैं।
तरस रही
मैं तेरे
आंचल
दूध
हाथों
को।
क्या भूल
हुई, मुझसे
क्यूं ख़फा है
मुझसे।
भूला दिया
तूझे
इन बदलते
चेहरों में।
होश ही न था
जा रही
किन अंधेरी
गुफाओं में
निकल पाना
नामूमकिन है मां।
आ जा, तू मां
पकड़ मेरी
उंगली
ले चल उस
दुनियां में।
जहां न हो
मजबूरियां
बेबसी
तन्हाईयां।
सिर्फ हो
खुशियां ही
खुशियां।
वर्षों से
जगी मैं
सो न सकी
कभी मैं।
सोना है
आज़ मुझे
गोद में तेरे
निर्भय और
निर्विकार हो।


सोमवार, 3 मई 2010

बरगद


सड़क किनारे खडा़ यह बरगद
देख रहा किसे, न जाने कब वह आएगा।
कई सदियां बीती,सरकारें बदली,ऋतुएं आई
पर तटस्थ दृष्टा बन, देखता रहा............. ।
निर्जन,उपेक्षित सा पडा़, हर पल सोचे ऐसा क्यूं है
औरतें नहीं बांधती रक्षा सूत्र, न मंगल सूत्र।
और न ही जलते धूप-दीप और न चढा़ नैवेद्य
क्या मैं शापित हूं,जात बहिष्कृत या फिर बंन्ध्या
पक्षियों का बसेरा तो है
पानी भी नहीं देता कोई।
फिर भी खडा़ हूं झंझावतों को झेलता
शायद यही है नियति मेरी।
जीना बस, जीते रहना,
सोचना मत, कल क्या होगा।