उन्नत भाल पर लहराते श्वेत केश
बगुलों की अनगिनत पंक्तियां अठखेलियां कर रही हो जैसे।
श्वेत दंत पंक्तियां झांक रही हैं होठों की ओट से, व्याकुल है कुछ कहने को
मगर मौन हो जाते हैं होठ, बिखरा देते हैं फूलों सी हंसी।
भृकुटी तन जाती है दुर्वासा की तरह, संयमित होते चाणक्य की तरह।
पिता तुल्य स्नेह लुटाते, कभी बन सखा आस बढ़ाते
शिशु सी निश्छल हंसी से लुटते हिय के तार ।
बज उठते हैं सुरों की राग-रागिनियां सुरमणियों के स्पर्श से
मृग शावक की किल्लौरियों सी नन्हीं उमंगे उमड़नें लगती है।
जीवन संध्या के तटबंधों से टकराकर बिखर जाती है
पाने को मचल उठता दिल बालपन के खिलौने की तरह।
काश..............................ऐसा न होता।
हर्षिता क्या यह आप्ने कविता के फॉर्म में लिखा है यदि ऐसा है तो इसकी पंक्तियों को ठीक से अरेंज कर दीजिये । शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंपिता तुल्य स्नेह लुटाते, कभी बन सखा आस बढ़ाते
जवाब देंहटाएंशिशु सी निश्छल हंसी से लुटते हिय के तार ।
बज उठते हैं सुरों की राग-रागिनियां सुरमणियों के स्पर्श से
मृग शावक की किल्लौरियों सी नन्हीं उमंगे उमड़नें लगती है।
शब्दों का सामंजस्य अच्छा है ...यूँ ही लिखती रहे ...11
.शरद जी की बात पर भी गौर करें ....उनकी रचनाओं का कोई सानी नहीं ....!!
कविता के भाव बहुत अच्छे हैं। शरद जी की सलाह पर ध्यान देंगी, आशा है।
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