चौराहे पर खडा़ मैं अकेला
आगे – पीछे, दाएं-बाएं
जन कोलाहल, सड़कों पर सरकती गाडि़याँ
इंसान को ढोता इंसान
फिर भी मैं अकेला।
मर्माहत इंसान, अवमूल्यों की धूम
पश्चिमी चकाचौंध में उलझती जिन्दगी
आदर्शों की लाश पर खडा़ इंसान
स्पर्धा की सरपट दौड़,कुर्सी की होड़ा-होडी़
दानव संस्कृति को पछाड़ता इंसान
फिर भी मैं अकेला।।
प्राकृतिक झंझावतों को झेलता
जिजीविषा की खोज में तड़पता इंसान
जनसंख्या के विस्फोट में ढूढ़ते
भूखे-नंगे,लाचार,बेकार,दिशाहीन लोगों की भीड़
विध्वंसक बारूदों की ढेर में तलाशता शान्ति
शून्य को निहारता, उदास खडा़ मैं अकेला।।
विचारोत्तेजक!
जवाब देंहटाएंअगर इंसान इस तर्ह सम्वेदना से जुडा है तो वह अकेला नही है
जवाब देंहटाएंEk Aachi kavita .
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और चिंतनशील कविता
जवाब देंहटाएंआभार
शुभ कामनाएं
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