आज फिर वो याद आए,
आहिस्ते से आना,
नजरें चुराना
बैठ जाना,
मुस्कुरा देना
और बगलें झांकना।
खामोश निगाहें बया करती़ हैं
अनगिनत अफसाने
फिर छेड़ देना बहस
आज के तरानों की
और डुब जाती है
चाय की चुश्कियों में।
फिर उठना
और चले जाना
रह जाते हैं
कई ऊलझे सवाल।
मैं जुट जाती हूं
सुलझाने में।
आहिस्ते से आना,
नजरें चुराना
बैठ जाना,
मुस्कुरा देना
और बगलें झांकना।
खामोश निगाहें बया करती़ हैं
अनगिनत अफसाने
फिर छेड़ देना बहस
आज के तरानों की
और डुब जाती है
चाय की चुश्कियों में।
फिर उठना
और चले जाना
रह जाते हैं
कई ऊलझे सवाल।
मैं जुट जाती हूं
सुलझाने में।
उठता है मन में ख्रयाल
जवाब देंहटाएंकैसे सुलझे ये ऊलझे सवाल।
मैं जुट जाती हूं चाय बनाने में
क्या रखा है इन गुत्थियों के
सुलझने-सुलझाने में।
इस कविता में प्रत्यक्ष अनुभव की बात की गई है, इसलिए सारे शब्द अर्थवान हो उठे हैं ।
जवाब देंहटाएंहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंSanjay kumar
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
आज फिर वो याद आए,
जवाब देंहटाएं..........लाजवाब पंक्तियाँ ............
आज फिर वो याद आए,
जवाब देंहटाएंआहिस्ते से आना,
नजरें चुराना
बैठ जाना,
मुस्कुरा देना
और बगलें झांकना।
Behad saral sundar alfaaz hain!
यादें अक्सर कुछ नये एहसास ले कर आती हैं ........... कब चाय शुरू होती है कब ख़त्म पता ही नही चलता ......... बहुत लाजवाब लिख है .......
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमैं जुट जाती हूं
जवाब देंहटाएंसुलझाने में।
अगर सुलझ जाये त्तो कविता के मध्याम से बताए .
behtreen
जवाब देंहटाएंगुत्थी सुलझी?!
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