शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

साधना



समुन्द्रतल से निकली,सागर में समाई
पर्वतीय शीलाखण्डों को दुलराती
अलहड़ सी मदमाती वनखण्डों
को सींचती,सहलाती निकली।


गर्विणी सी तोड़ती मानवीय दर्प तटों को
बन मानिनी सी,सकुचाती प्रिया मिलन
की आस में अंजुमन की धार बन जाती।


कभी उन्मत हो चट्टानों,पथरीलें राहों से गुजरती
दिवानी सी बह निकली अन्जान राहों से
उछलती,उफनती दुधियाई शीतलता की बौछार करती।


गुनगुनाती,नर्तन करती,गुदगुदाती संवेदनाओं को
रेतों, मैदानों को संजीवनी बन प्राण फूंकती
धर्म को संस्कारित कर ठोस धरातल देती।


जीवन की निस्सारता को पूर्णता देती
मल, मलीनता,धर्मान्धता, करकटों को छांकती
नवस्पूर्त कर जीवन प्रदान करती बह निकली।

बोझिल कदमों से,उन्नीदी आंखों से निहारती
समाहित हुई सागर में,करती निरन्तर साधना साध्य की
सतत् प्रवहमान आनंद के परमानंद में।

16 टिप्‍पणियां:

  1. लिखते रहिये,सानदार प्रस्तुती के लिऐ आपका आभार


    साहित्यकार व ब्लागर गिरीश पंकज जीका इंटरव्यू पढने के लिऐयहाँ क्लिक करेँ >>>>
    एक बार अवश्य पढेँ

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  2. कभी उन्मत हो तट्टानों,पथरीलें राहों से गुजरती
    दिवानी सी बह निकली अन्जान राहों से
    उछलती,उफनती दुधियाई शीतलता की बौछार करती। sundar atisundar badhai

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  3. करती निरन्तर साधना साध्य की
    आध्यात्मिक सोच !

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  4. अपनी एक पुरानी रचना याद आ गयी.....
    ...........यह सागर है मेरा इश्वर!
    इसमें विलीन होना होगा...........
    बेहद क्लिष्ट हिंदी लिखी है आपने....... लेकिन खूबसूरत और प्रवाहमयी बिलकुल आपकी नायिका नदिया की तरह....
    -----------------------
    इट्स टफ टू बी ए बैचलर!

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  5. टिप्स ब्लाग टीम,सुनील कुमार जी,हास्य फुहार,आशीष जी आप सभी का बहुत ही धन्यवाद प्रोत्साहित करने के लिए।

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  6. इस साधाना को पढकर परम शांति की अनुभूति हुई और ईश्‍वर से प्रार्थना किया
    बस मौला ज्‍यादा नहीं, कर इतनी औकात,
    सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात

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  7. मनोज जी,गिरीश जी,चैन जी आप सभी का बहुत धन्यवाद।

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  8. बहुत ही सुंदर रचना है ... सुंदर भाव लिए ...

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  9. जीवन की निस्सारता को पूर्णता देती
    मल, मलीनता,धर्मान्धता, करकटों को छांकती
    नवस्पूर्त कर जीवन प्रदान करती बह निकली।

    sundar rachna

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  10. नासवा जी,दिव्या जी धन्यवाद इतनी सुन्दर टिप्पणी के लिए।

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  11. क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग के बावजूद एक सुन्दर और प्रभावशाली रचना है ....

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  12. धन्यवाद इन्द्रनील जी एवं मारिया जी। मारिया जी आपके सुझाव का स्वागत करती हूं धन्यवाद।

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  13. अरूणेश जी आपका बहुत धन्यवाद।

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  14. गुनगुनाती,नर्तन करती,गुदगुदाती संवेदनाओं को
    रेतों, मैदानों को संजीवनी बन प्राण फूंकती
    धर्म को संस्कारित कर ठोस धरातल देती। ....

    aaj punah padha iss kavita ko....mann khush ho gaya....

    bahut hi sundar rachna...

    fir aaungi...dil nahi bharta

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