बुधवार, 9 दिसंबर 2009

अनकहे प्रश्न

अन्तस्तल की गहराई में
डुबती-उतराती मैं
बन सूरज की नन्हीं किरण
स्पर्श कर, स्पन्दित किया
स्वस्पूर्तित हुई मैं
तुमने कहा मंथन करों
भवसागर के गरल,विषैले नागों
विष दन्त विहिन दानवों का
अमृत सा जीवन,आत्मसात कर
दो शान्ति,प्रेम,भाई-चारा
जीओं और जीने दो
गुंजयमान करो, जग को
शुक्रिया, मेरे सखा,साथी,हमसफर
हमराही,न दूंगी नाम कोई
बदलते जाने-अनजाने रिश्ते को
बन राही
क्षितिज के पार
अनन्त की खोज में
चलने को हूं तैयार मैं
बोलो, दोगे साथ मेरा।

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भाव।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. wahhh ji wahhh dost aapki kavita main kuch nyapan dekhne ko mila .....iske liye badhae!! likhte rahen ....


    Jai Ho Mangalmay hO

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  3. अनन्त की खोज में
    चलने को हूं तैयार मैं

    the world is with you

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  4. जीवन का मंथन अनंत की खोज में ............ बहुत ही लाजवाब .........

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  5. बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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