ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
ओ, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
ओ, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
ओ, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
ओ, पर्वतराज हिमालय,
कितना अदभूत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
ओ, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।
रचना अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंयह रचना अपनी एक अलग विषिष्ट पहचान बनाने में सक्षम है।
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंविशाल हिमालय हो बाँधने की लिए उससे भी विशाल शब्द संजोए हैं आपने ........ साहित्य की एक अनुपान कृति है आपकी रचना ...........
जवाब देंहटाएंमनोज जी एवं दिगम्बर नासवा जी आपके विचार मेरे मार्ग को और अधिक प्रशस्थ करने की कडी है,धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंयह रचना अपनी एक अलग विषिष्ट पहचान बनाने में सक्षम है।
जवाब देंहटाएं