शुक्रवार, 26 मार्च 2010

जागती आंखे

जागती आंखे
हर पल निहारे
सोचे कौन है
तारणहार
सुलझे-अनसुलझे
मसले
रोटी-कपडा़-मकान
या
माओवाद,आतंकवाद,
जातिवाद, पार्टीवाद
प्रादेशिकता,आंचलिकता
भाषायी,धार्मिक मसले
या
मंहगाई,बेरोजगारी
भूखमरी की मार
नारी व्यथा
भ्रूण हत्या
दहेज
शिक्षा
या
प्राकृतिक झंझावतों
को झेलता
इंसान
कौन
है
तारणहार

नेता,अभिनेता
पत्रकार,सामाजिक
कार्यकर्ता
नौकरशाह
योगीराज,महाराज
और
आधुनिक बाबा
या
खुद हम।



9 टिप्‍पणियां:

  1. जागती आंखे
    हर पल निहारे
    सोचे कौन है

    बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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  2. दिल को छू रही है यह कविता .......... सत्य की बेहद करीब है ..........

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  3. अमूमन कविता कहते वक्त शायद कवि को इसका इल्म नहीं हो पाता कि उसकी जागती आंखों ने कईयों की नींद में खलल डाल दी है...उम्दा रचना

    आलोक साहिल

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  4. बहुत उम्दा भाव!

    -

    हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

    लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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  5. इंसान खुद ही अपना तारनहार होता है ... खुदी को कर इतना बुलंद ....

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  6. आप सभी का विशेष रूप से धन्यवाद करना चाहती हूं कि आप ने अपना समय दिया एवं प्रेरक टिप्पणियां दी,धन्यवाद।
    समीर जी आपका निवेदन मेरे लिए आदेश के समान हैं,आगे से ध्यान दूंगी,लेकिन आप दूज के चांद की तरह नहीं,बल्कि रोज के चांद की तरह हौसला अबजाई करने अवश्य पधारे,क्योंकि आप जैसे दिगजों के आशीर्वचन की मुझे अत्यन्त आवश्यकता है,धन्यवाद।
    साहिल जी आपका बहुत धन्यवाद। अगर मेरी रचना ने एक की भी नीद में खलल डाली हो तो मैं इसे अपनी सार्थकता मानूंगी,धन्यवाद।

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  7. बेहतरीन। बधाई।
    देनहार कोई और हैं भेजत हैं दिन रैन ।
    लोग भरम हम पर धरैं येते नीचे नैन ।।

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  8. अंत में आपने उत्तर दे ही दिया़---

    खुद हम

    ...अच्छे चिंतन के लिए बधाई।

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