शनिवार, 3 अप्रैल 2010

बोलो ना


चांद से मुखड़े पर
उदासी क्यूं छाई
बोलो ना
बसन्त में पतझड़ सी
उदासी क्यूं है।
फाग भी रीता निकला
बसन्त का करो स्वागत
बांह फैला कर
आगोश में भर लो
न जाने दो कहीं
रोक लो।
ग्रीष्म की तपिस
भी न झूलसा सकी
प्यार की कपोले
फिर फुटेगी सावन
के महिने में।
रिम-झिम बारिश
कर देगी सराबोर
सूने कोने को।
फिर लहलहा उठेगा
दिल का सूनापन
फिर खिलेंगे
अरमां के फूल।
शरद के नीले आसमां तले
सजेगी अरमानों की बारात
खुशी के नगमें बज उठेंगे
पिया मिलन की आंस में।
शिशिर की ठिठुरन में
एक हो जाएंगे
होगा
इंतजार
नए बंसन्त का
बोलो ना
क्यूं हो उदास।

8 टिप्‍पणियां:

  1. ग्रीष्म की तपिस
    भी न झूलसा सकी
    प्यार की कपोले
    फिर फुटेगी सावन
    के महिने में।
    बहुते बढ़िया है। हर मौसम को समेट लिया है अपने।

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  2. सब रंगों को समेत लिया आपने मौसम के ....
    बहुत अच्छा लिखा ...

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  3. आपके सुन्दर कमेन्ट के लिए धन्यवाद नासवा जी।

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  4. बहुत खूब...एक शानदार और नवरंगी रचना...

    आलोक साहिल

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  5. साहिल जी बहुत धन्यवाद आपका।

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