प्रेम,प्यार,इश्क,मोहब्बत
सब एक हैं या जु़दा।
अल्ला,ईश्वर,ख़ुदा,परवरदीगार
नूर में हैं समाएं सब बंदे तेरे।
प्रेम क्या है आकर्षण,
दीवानगी,ईबादत,दिल्लगी।
या फिर
ज़ुनून,पागलपन,मदहोशी।
या फिर
भूख,हृदय की रागिनी
सांसों का नर्तन,
रूहों का मिलन
ज़िस्मों का मिलन।
क्यूं हैं दुनियां दुश्मन इसकी
क्यूं बिछाए रोड़े जात-पात के
क्यूं बिछाए कांटे गरीबी-अमीरी के।
क्यूं बने दुश्मन अपने ही प्यार के
क्यूं देते धोखा अपने ही प्यार को
क्यूं करते ज़लील अपने ही प्यार को
क्यूं लेते ज़ान अपने ही प्यार की।
कसमें खाते ताउम्र साथ निभाने की
बन जाते हत्यारे, अपने ही प्यार के।
कहां गई वो मिट्ठास,बन गए पशु
जिस सूरत को बसाया था, आंखों में
तेजाब से बदरंग किया उस को।
कैसा है यह प्यार,आज-कल समझ नहीं आता
जिसे चाहा,जिसे पूजा,उसे ही बेआबरू,बेघर किया।
कहां गई वो मिट्ठास,बन गए पशु
जिस सूरत को बसाया था, आंखों में
तेजाब से बदरंग किया उस को।
कैसा है यह प्यार,आज-कल समझ नहीं आता
जिसे चाहा,जिसे पूजा,उसे ही बेआबरू,बेघर किया।
अगर कोई प्रेम को समझ सके तो फिर वो कृष्ण न हो जाए .... अच्छी रचना है ...
जवाब देंहटाएंविषय को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है ।
जवाब देंहटाएंइस कविता के माध्यम से
जवाब देंहटाएंबढ़िया चिंतन प्रस्तुत किया है!
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माँग नहीं सकता न, प्यारे-प्यारे, मस्त नज़ारे!
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संपादक : सरस पायस
manoj ji ne bilkul sahi kaha hai
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना....
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत धन्यवाद,आपके सुझाव हमारी प्रेरणा है। आप से निवेदन है कि यदि कहीं त्रुटियां हो तो कृपया उसका भी उल्लेख करें,ताकि हम उसे सुधार सके तथा आपकी कसौटी पर खरे उतरने का प्रयास करे।
जवाब देंहटाएंPrashansneeya Prayaas!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना है ! दुःख तो इसी बात का है कि रुढीबादी समाज में इंसानियत कि कभी कोई जगह नहीं थी ! और जहाँ इंसानियत कि ही अहमियत न हो, वहां प्यार, मुहब्बत कैसे पनप सकते हैं ?
जवाब देंहटाएंप्यार को लेकर इतने सारे सवाल ? सही है प्यार तो महसूस करने की चीज़ है और सौहार्द्र, भाइचारा , सभीके मूल में प्यार ही ही तो है ।
जवाब देंहटाएंआशीष जी,इन्द्रनील जी,शरद जी -आपके विचार के लिए बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंप्यार को व्यापक करने का द्रष्टिकोण अच्छा लगा
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