क्या ज़िंदा हूं मैं
पता ही नहीं
चारों तरफ सन्नाटा
ही सन्नाटा
गुजरा कोई इधर से
खबर ही नहीं
क्या ज़िंदा हूं मैं
नहीं आती आवाज़े
चीखने की
सिसकने की
मुस्कराने की
कराहने की
बुदबुदाने की
चीरती हुई सन्नाटे को
कौन है जिम्मेदार
इस हालात के
कभी मैं भी था
हिस्सा इस बस्ती का
ज़िन्दा था
सोचता था
रोता था
हंसता था
अब तो कुछ महसूस
ही नहीं होता
कि ज़िंदा हूं मैं।
पता ही नहीं
चारों तरफ सन्नाटा
ही सन्नाटा
गुजरा कोई इधर से
खबर ही नहीं
क्या ज़िंदा हूं मैं
नहीं आती आवाज़े
चीखने की
सिसकने की
मुस्कराने की
कराहने की
बुदबुदाने की
चीरती हुई सन्नाटे को
कौन है जिम्मेदार
इस हालात के
कभी मैं भी था
हिस्सा इस बस्ती का
ज़िन्दा था
सोचता था
रोता था
हंसता था
अब तो कुछ महसूस
ही नहीं होता
कि ज़िंदा हूं मैं।
क्या ज़िंदा हूं मैं
जवाब देंहटाएंपता ही नहीं
चारों तरफ सन्नाटा
ही सन्नाटा
.......लाजवाब पंक्तियाँ
सुमन जी,संजय जी आपका बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसन्नाटा भी शोर करता है कभी ... गूँजता है कभी .. ता ये एहसास करना पड़ता है की जिंदा हूँ या नही ...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट पढ़ी बहुत अच्छी लगी संवदनाओं से भरपूर है
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंये सवाल क्यों
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
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