सोमवार, 26 अप्रैल 2010

क्या कहूं

कलकत्ता के

मछुआ बाजार

का

चौराहा पार

करते हुए

गुजरा कसाई

हांकते झुंड

भेड़ और बकरे

का

विद्रोही निकला

एक बकरा

करीब आ मेरे

खींचने लगा

बैग मेरा

मुड़के देखा

कृशकाय

मासूम सा

अश्रुपूरित निगाहें

उसकी

रूला गई मुझे

मानों पूछ रही हो

मैंने किया

क्या गुनाह

भूख न मिटी मेरी

मिटाने चला भूख

तुम्हारी

क्या शेष उद्देश्य

यही मेरे जीवन का

अंतरात्मा कांप उठी

गूंज उठा

एक ही स्वर

क्या शेष उद्देश्य

यही मेरे जीवन का

किया क्यों नहीं

संरक्षण हमारा

क्यूं छोड़ दिया

यूं भटकने

जीने और मरने को

किंकर्तव्यविमूढ़ सी

देखती रही, सोचती रही

सच ही तो है

संरक्षण का नारा लगाते

हम क्या वाकई

संरक्षण दे रहे निर्बल,

कमजोर,

अपाहिज

को या फिर

स्वांग रच रहें

खेल खेल रहे

ग्रास बना रहे

इन मासूमों को

बन सर्वशक्तिमान

रक्षा कर न सके

इन मासूमों की।

9 टिप्‍पणियां:

  1. संवेर्दनशील है आपकी रचना बहुत ... शायद इसी को जेवन कहते हैं .. कसाई की ताक़त के आगे ... निरीह है वो पशू ...

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

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  3. बहुत सुन्दर रचना है ... दिल को छुं गई ... इससे आपके संवेनशील मन का पता चलता है ....

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  4. आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  5. पहले तो इस सुंदर से टेम्पलेट के लिए बधाई।
    बहुत ही संवेदनशील रचना।

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  6. मनोज जी आपका बहुत धन्यवाद टिप्पणी देने एवं टेम्पलेट की तारीफ करने के लिए।
    कवि सुरेन्द्र दुबे जी आप पहली बार मेरे ब्लाक पर आए एवं टिप्पणी दी आपने उसके लिए मैं तहेदिल से आपकी शुक्रगुजार हूं,इसी तरह आगे भी साथ मिलता रहे,इसी उम्मीद के साथ पुनःआपका धन्यवाद देती हूं।

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