गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

क्या ज़िंदा हूं मैं

क्या ज़िंदा हूं मैं
पता ही नहीं
चारों तरफ सन्नाटा
ही सन्नाटा
गुजरा कोई इधर से
खबर ही नहीं
क्या ज़िंदा हूं मैं
नहीं आती आवाज़े
चीखने की
सिसकने की
मुस्कराने की
कराहने की
बुदबुदाने की
चीरती हुई सन्नाटे को
कौन है जिम्मेदार
इस हालात के
कभी मैं भी था
हिस्सा इस बस्ती का
ज़िन्दा था
सोचता था
रोता था
हंसता था
अब तो कुछ महसूस
ही नहीं होता
कि ज़िंदा हूं मैं।

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या ज़िंदा हूं मैं
    पता ही नहीं
    चारों तरफ सन्नाटा
    ही सन्नाटा

    .......लाजवाब पंक्तियाँ

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  2. सुमन जी,संजय जी आपका बहुत धन्यवाद।

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  3. सन्नाटा भी शोर करता है कभी ... गूँजता है कभी .. ता ये एहसास करना पड़ता है की जिंदा हूँ या नही ...

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  4. आपकी पोस्ट पढ़ी बहुत अच्छी लगी संवदनाओं से भरपूर है

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।

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